मोदी सरकार की दशा और दिशा के दो साल, विकास की नई सोच के साथ मीडिया में बटोरी सुखिर्या
मोदी सरकार की दशा और दिशा के दो साल, विकास की नई सोच के साथ मीडिया में बटोरी सुखिर्या
सत्ता संभालने के दो महीने बाद जब पहली बार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब न्यूयॉर्क के जानेमाने मैडिसन स्कवेयर गार्डन पहुंचे तो शहर में मोदी-मोदी के नारे गूंज रहे थे। टाइम्स स्कवेयर की विशाल टीवी स्क्रीन पर उनकी तस्वीरें दिखाई जा रही थीं और शहर का ट्रैफ़िक मानो हिलने का नाम नहीं ले रहा था।
उनकी जीत के फ़ौरन बाद वाशिंगटन पोस्ट ने मुख्य संपादकीय में उनकी एक बड़ी सी तस्वीर प्रकाशित की थी और उसमें सवाल था, मोदी भारत में चीन जैसी तरक्की का महत्वाकांक्षी सपना दिखा रहे हैं लेकिन वो भारत के डेंग शाओपिंग बनेंगे या फिर ब्लादीमिर पुतिन?
यानी वो डेंग की तरह आर्थिक सुधार के चैंपियन बनेंगे या पुतिन की तरह निरंकुश और राष्ट्रवादी नीतियां अपनाकर अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी से उतार देंगे।
लोकसभा चुनाव से पहले और भारतीय जनता पार्टी की अप्रत्याशित जीत के बाद भी शायद ही कोई अख़बार या टीवी चैनल था जो मोदी का ज़िक्र करते हुए गुजरात दंगों की बात नहीं कर रहा हो।
लेकिन जीत के कुछ महीनों बाद जिस तरह उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने भाषण में सबसे पहले स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इंडिया जैसे नारों, स्मार्ट सिटीज़, बुलेट ट्रेन्स, योग दिवस और अपने कपड़ों की वजह से हमेशा प्रधानमंत्री मोदी सुर्खियों में बने रहे। इसके अलावा रेडियो पर जिस तरह उन्होंने हिन्दुस्तान की जनता को संबोधित करते हुए अपने मन की बात की उसने भी खूब चर्चा बटोरी।
भारत के प्रति उसी तरह की उम्मीद दर्शाई गई है जैसी अटल विहारी वाजपेयी सरकार और मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में नज़र आती थी।
दुनिया भर की पत्र पत्रिकाओं ने उन्हें दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में रखा और जिस अमेरिका में उनकी एंट्री नहीं थी और उन्हें वीजा नहीं मिल रहा था, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन पर एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था “रिफ़ॉर्मर इन चीफ़ यानी प्रधान सुधारक”, इस लेख में उन्होंने जमकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कसीदे पढे।
ओबामा ने लिखा “जब वो वाशिंगटन आए थे, तो नरेंद्र और मैं, डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग के स्मारक पर गए थे। वहां हमने मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी की बात की और ये बात भी हुई कि हमारे देशों की जो विविधता है, अलग-अलग पृष्ठभूमि और धर्मों की है, वो हमारी ताक़त है और हमें उसे बचाना है.”। लेकिन गुज़रते दिनों के साथ इन अच्छी ख़बरों पर असहिष्णुता, गोमांस, धर्मांतरण से जुड़ी सुर्खियां हावी होने लगी हैं। विकास की बात जुमलेबाजी में तब्दील हो गई और विकास की जगह जेएनयू के आंदोलनकारी कन्हैया की बातें होने लगीं। राजस्थान के स्कूल पाठ्यक्रम से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पाठय पुस्तक से हटाए जाने की बात हो, या फिर धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़ी संस्था के सदस्यों को वीज़ा नहीं दिए जाने की बात। ये सभी बातें भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रवादी राजनीति मोदी के विकास के एजेंडा पर हावी होती दिखी इन दो वर्षों में।
“अंतरराष्ट्रीय मीडिया सामाजिक मामलों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों को काफ़ी गौर से परख रहा है और ख़ासतौर से उनके गुजरात के इतिहास की वजह से उनके सामाजिक एजेंडा पर पहले की सरकारों के मुक़ाबले ज़्यादा पैनी नज़र रखी जा रही है.”।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उम्मीद की जाती है कि जब इस तरह की घटनाएं हों तो मोदी उस पर बोलें, अपनी नीति स्पष्ट करें जो उन्होंने की भी है। लेकिन एक दूसरे थिंक टैंक के भारतीय मूल के जाने-माने विश्लेषक, जो इस मामले पर अपना नाम नहीं देना चाहते, उनका कहना था कि डर इस बात का है कि ये सुर्खियां मोदी सरकार के कई अच्छे कामों को दबा देंगी और इसके लिए सरकार को सचेत रहने की ज़रूरत है. ऐसा इसलिए ताकि दुनिया के सामने पूरे देश को साथ लेकर चलने का जो वादा किया है उन्होंने, वो नज़र भी आए।
हाल ही में वाशिंगटन के दौरे पर गए वित्त मंत्री अरूण जेटली से बीबीसी ने एक ख़ास बातचीत के दौरान ये पूछा था कि जो सरकार विकास के मुद्दे पर सत्ता में आई थी, वहां से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में विकास की जगह कन्हैया की ख़बरें क्यों आ रही हैं?
जेटली ने कहा, “कुछ विषय पत्रकारों को ज़्यादा समझ में आते हैं.”
उनका कहना था, “ज़मीन पर कोई इंटॉलरेंस नहीं है. अगर अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के भाषण पढ़ लिए जाएं तो उसकी तुलना में हमारे यहां बहुत अधिक संयम है.”।
जेटली का ये भी कहना था कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस तरह की सुर्खियों से विदेशी निवेश पर कोई असर नहीं पड़ा है। मोदी के कई समर्थक अंतरराष्ट्रीय मीडिया पर मोदी के ख़िलाफ़ एक पक्षपातपूर्ण रवैया रखने का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि ये भारत को पश्चिमी देशों के बराबर खड़ा होता नहीं देखना चाहते और इसलिए ज़्यादातर निगेटिव ख़बरें ही सुर्खियां बनती हैं। लेकिन इन्हीं अख़बारों के संपादकीय भारतीय लोकतंत्र की कामयाबी, जलवायु और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मामलों पर भारत की महत्वपूर्ण भूमिका की भी बात करते हैं।
कुछ लोगों का ये भी कहना है मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से मीडिया से एक दूरी सी बना रखी है। विवादास्पद घरेलू मु्ददों पर भी वो अकसर हफ़्तों महीनों तक चुप नज़र आते हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ भी उन्होंने दो साल पहले अमरीका दौरे से पहले सीएनएन के फ़रीद ज़कारिया से बात की थी और उसके बाद वो शायद ही कहीं नज़र आए हैं।
विशलेषकों का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र हो, विश्व बैंक हो या फिर दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंच, भारत को अगर असरदार तरीके से अपने हितों की बात करनी है तो उसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ संवाद बनाने की ज़रूरत होगी और वहां तीखे सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा।
मोदी की मीडिया नीति फ़िलहाल ऐसा करती हुई नहीं दिख रही है।
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उनकी जीत के फ़ौरन बाद वाशिंगटन पोस्ट ने मुख्य संपादकीय में उनकी एक बड़ी सी तस्वीर प्रकाशित की थी और उसमें सवाल था, मोदी भारत में चीन जैसी तरक्की का महत्वाकांक्षी सपना दिखा रहे हैं लेकिन वो भारत के डेंग शाओपिंग बनेंगे या फिर ब्लादीमिर पुतिन?
यानी वो डेंग की तरह आर्थिक सुधार के चैंपियन बनेंगे या पुतिन की तरह निरंकुश और राष्ट्रवादी नीतियां अपनाकर अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी से उतार देंगे।
लोकसभा चुनाव से पहले और भारतीय जनता पार्टी की अप्रत्याशित जीत के बाद भी शायद ही कोई अख़बार या टीवी चैनल था जो मोदी का ज़िक्र करते हुए गुजरात दंगों की बात नहीं कर रहा हो।
लेकिन जीत के कुछ महीनों बाद जिस तरह उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने भाषण में सबसे पहले स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इंडिया जैसे नारों, स्मार्ट सिटीज़, बुलेट ट्रेन्स, योग दिवस और अपने कपड़ों की वजह से हमेशा प्रधानमंत्री मोदी सुर्खियों में बने रहे। इसके अलावा रेडियो पर जिस तरह उन्होंने हिन्दुस्तान की जनता को संबोधित करते हुए अपने मन की बात की उसने भी खूब चर्चा बटोरी।
भारत के प्रति उसी तरह की उम्मीद दर्शाई गई है जैसी अटल विहारी वाजपेयी सरकार और मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में नज़र आती थी।
दुनिया भर की पत्र पत्रिकाओं ने उन्हें दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में रखा और जिस अमेरिका में उनकी एंट्री नहीं थी और उन्हें वीजा नहीं मिल रहा था, अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन पर एक लेख लिखा जिसका शीर्षक था “रिफ़ॉर्मर इन चीफ़ यानी प्रधान सुधारक”, इस लेख में उन्होंने जमकर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर कसीदे पढे।
ओबामा ने लिखा “जब वो वाशिंगटन आए थे, तो नरेंद्र और मैं, डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग के स्मारक पर गए थे। वहां हमने मार्टिन लूथर किंग और महात्मा गांधी की बात की और ये बात भी हुई कि हमारे देशों की जो विविधता है, अलग-अलग पृष्ठभूमि और धर्मों की है, वो हमारी ताक़त है और हमें उसे बचाना है.”। लेकिन गुज़रते दिनों के साथ इन अच्छी ख़बरों पर असहिष्णुता, गोमांस, धर्मांतरण से जुड़ी सुर्खियां हावी होने लगी हैं। विकास की बात जुमलेबाजी में तब्दील हो गई और विकास की जगह जेएनयू के आंदोलनकारी कन्हैया की बातें होने लगीं। राजस्थान के स्कूल पाठ्यक्रम से भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को पाठय पुस्तक से हटाए जाने की बात हो, या फिर धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़ी संस्था के सदस्यों को वीज़ा नहीं दिए जाने की बात। ये सभी बातें भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रवादी राजनीति मोदी के विकास के एजेंडा पर हावी होती दिखी इन दो वर्षों में।
“अंतरराष्ट्रीय मीडिया सामाजिक मामलों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीतियों को काफ़ी गौर से परख रहा है और ख़ासतौर से उनके गुजरात के इतिहास की वजह से उनके सामाजिक एजेंडा पर पहले की सरकारों के मुक़ाबले ज़्यादा पैनी नज़र रखी जा रही है.”।
अंतरराष्ट्रीय मीडिया में उम्मीद की जाती है कि जब इस तरह की घटनाएं हों तो मोदी उस पर बोलें, अपनी नीति स्पष्ट करें जो उन्होंने की भी है। लेकिन एक दूसरे थिंक टैंक के भारतीय मूल के जाने-माने विश्लेषक, जो इस मामले पर अपना नाम नहीं देना चाहते, उनका कहना था कि डर इस बात का है कि ये सुर्खियां मोदी सरकार के कई अच्छे कामों को दबा देंगी और इसके लिए सरकार को सचेत रहने की ज़रूरत है. ऐसा इसलिए ताकि दुनिया के सामने पूरे देश को साथ लेकर चलने का जो वादा किया है उन्होंने, वो नज़र भी आए।
हाल ही में वाशिंगटन के दौरे पर गए वित्त मंत्री अरूण जेटली से बीबीसी ने एक ख़ास बातचीत के दौरान ये पूछा था कि जो सरकार विकास के मुद्दे पर सत्ता में आई थी, वहां से अंतरराष्ट्रीय मीडिया में विकास की जगह कन्हैया की ख़बरें क्यों आ रही हैं?
जेटली ने कहा, “कुछ विषय पत्रकारों को ज़्यादा समझ में आते हैं.”
उनका कहना था, “ज़मीन पर कोई इंटॉलरेंस नहीं है. अगर अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के भाषण पढ़ लिए जाएं तो उसकी तुलना में हमारे यहां बहुत अधिक संयम है.”।
जेटली का ये भी कहना था कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस तरह की सुर्खियों से विदेशी निवेश पर कोई असर नहीं पड़ा है। मोदी के कई समर्थक अंतरराष्ट्रीय मीडिया पर मोदी के ख़िलाफ़ एक पक्षपातपूर्ण रवैया रखने का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि ये भारत को पश्चिमी देशों के बराबर खड़ा होता नहीं देखना चाहते और इसलिए ज़्यादातर निगेटिव ख़बरें ही सुर्खियां बनती हैं। लेकिन इन्हीं अख़बारों के संपादकीय भारतीय लोकतंत्र की कामयाबी, जलवायु और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मामलों पर भारत की महत्वपूर्ण भूमिका की भी बात करते हैं।
कुछ लोगों का ये भी कहना है मोदी ने सत्ता संभालने के बाद से मीडिया से एक दूरी सी बना रखी है। विवादास्पद घरेलू मु्ददों पर भी वो अकसर हफ़्तों महीनों तक चुप नज़र आते हैं। अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ भी उन्होंने दो साल पहले अमरीका दौरे से पहले सीएनएन के फ़रीद ज़कारिया से बात की थी और उसके बाद वो शायद ही कहीं नज़र आए हैं।
विशलेषकों का कहना है कि संयुक्त राष्ट्र हो, विश्व बैंक हो या फिर दूसरे अंतरराष्ट्रीय मंच, भारत को अगर असरदार तरीके से अपने हितों की बात करनी है तो उसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया के साथ संवाद बनाने की ज़रूरत होगी और वहां तीखे सवालों के लिए भी तैयार रहना होगा।
मोदी की मीडिया नीति फ़िलहाल ऐसा करती हुई नहीं दिख रही है।
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