बिहार में महाजंगलराज,6 माह में 642 हत्याएं, 1723 अपहरण,1114 डकैती, 2762 दंगे एवं 342 लूट
भाजपा ने कहा कि राजद के साथ सरकार बनाने के वक्त बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यह घोषण की थी कि लोगों को डरने की आवश्यक्ता नहीं है, राज्य में जंगलराज की वापसी अब किसी भी कीमत पर नहीं होगी। लेकिन नवम्बर 2015 से लेकर यदि अभी तक के आपराधिक आॅंकड़ों पर नजर डालें तो जो तस्वीर उभरकर सामने आती है वह राजद शासनकाल से भी ज्यादा डरावनी है।
भाजपा प्रवक्ता सुरेश रूॅंगटा ने आंकड़े बताते हुए कहा कि मात्र छः महीनों में ही 642 हत्याएं, 1723 अपहरण,1114 डकैती, 2762 दंगे एवं 342 सड़क लूट की घटनाएं हुई हैं। कुल संगीन अपराध मात्र छः महीनों के भीतर दो लाख से ज्यादा हो चुके हैं। क्या यहीं सुशासन है? क्या नीतीश जी इससे भी अधिक आपराधिक घटनाओं के इंतजार में शांत बैठे हैं?
दूसरे प्रांतों का उदाहरण देकर वे कैसे जनता से किये गये वायदों से बच सकते हैं? जनता ने भाजपा के साथ नीतीश का शासन देखा है, जिसमें बिहार में विकास बुलंदियों को छू रहा था। अब राजद के साथ सरकार के छः माह के कालखंड में ही विकास फिजूल की बातें हो गई। कानून व्यवस्था की हालत इतनी ज्यादा खराब हो गई है कि राज्य में व्यवसायी वर्ग से लेकर पत्रकार तक सुरक्षित नहीं रह गये हैं।
मंत्रियों का अपराधियों से निकटता के कारण सत्ता का रोआब अब खत्म हो चुका है।अपराधियों के हौसले बुलंदी पर है।अब बिहार में विकास की नहीं, राजद शासनकाल की तरह नीतीश सरकार में भी अपराधियों की बहार है।
बिहार में बढ़ते अपराध से बिगड़ते हालत के सबूत इतने खुले रूप में सामने आ रहे हैं कि राज्य सरकार अब उन्हें अपने किसी गढ़े हुए आंकड़ों के ज़रिये भी नकार नहीं सकती.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अब सार्वजनिक भाषणों में अपना ये पसंदीदा जुमला दुहराने से बचते हैं कि '' राज्य में अमन-चैन और क़ानून का राज क़ायम है.''
आंकड़े बताते हैं कि यहाँ सबसे जघन्य अपराध यानी हत्या, अपहरण और बलात्कार की घटनाएँ ज़्यादा हो रही हैं. ख़ासकर हत्याओं का सिलसिला काफ़ी तेज़ हो गया है.
पिछले एक साल में लगभग चार हज़ार लोगों की हत्या हो जाने के आंकड़े तो सरकारी खाते में दर्ज हैं.
ग़ैर-सरकारी सूत्र इस तादाद को और अधिक बता रहे हैं.
सरकारी आंकड़े, विपक्षी आरोप नहीं
"हिंसक श्रेणी के अपराध पहले से बढे नहीं है, बल्कि कुछ कम ही हुए हैं. लेकिन हाँ, आर्थिक अपराध ज़रूर बढे हैं और उसका असर घूम फिर कर हिंसक अपराध बढाने में भी होता है. तो हमने आर्थिक अपराध रोकने के लिए अब जैसी पहल की है, वैसी पहले नहीं हो पाई थी. और ख़ास बात कि मैंने हत्या संबंधी मामलों के वैज्ञनिक अनुसन्धान पर ज़ोर डाला है और इसका लाभ अपराध नियंत्रण में साफ़ दिख रहा है.''"
अभयानंद, बिहार के डीजीपी
इसी तरह अपहरण की कुल संख्या भी 10 हज़ार 365 से बढकर, 18 हज़ार 83 तक जा पहुँची. ये सरकार के आंकड़े हैं, विपक्षी आरोप नहीं.
ऐसे में ये सवाल उठना स्वाभाविक है कि मौजूदा मुख्यमंत्री के 'अमन-चैन ' वाले बहुप्रचारित दावे की विश्वसनीयता क्या है? सत्ता रचित भ्रमजाल को तोड़ने जैसा ये प्रश्न अब पूछा जाने लगा है.
'हालात लालू-राबड़ी राज से भी बदतर होते जा रहे हैं' जैसी खुली चर्चा ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को बेहद चिंतित कर दिया है. ज़ाहिर है कि राज्य सरकार के खुफ़िया तंत्र से भी उन्हें इसके संकेत मिले होंगे.
इसी कारण मुख्यमंत्री ने हाल के दिनों में यहाँ पुलिस और प्रशासनिक महकमे को झकझोरने वाली बैठकें बुलाईं और बेक़ाबू होती जा रही स्थिति को संभालने के सख्त निदेश दिए.
पुलिस का पक्ष
"लगता है सांप की तरह बिल से फिर बलबला कर निकला है क्रिमनल सब. जो अपराधी ठेकेदारी में लग गया था, वो सब फिर से क्राईम करने में जुट गया है."
पटना के गांधी मैदान में एक व्यक्ति की राय
डीजीपी बोले, '' हिंसक श्रेणी के अपराध पहले से बढे नहीं है, बल्कि कुछ कम ही हुए हैं. लेकिन हाँ, आर्थिक अपराध ज़रूर बढे हैं और उसका असर घूम फिर कर हिंसक अपराध बढाने में भी होता है. तो हमने आर्थिक अपराध रोकने के लिए अब जैसी पहल की है, वैसी पहले नहीं हो पाई थी. और ख़ास बात कि मैंने हत्या संबंधी मामलों के वैज्ञनिक अनुसंधान पर ज़ोर डाला है और इसका लाभ अपराध नियंत्रण में साफ़ दिख रहा है.''
हालात की गंभीरता मान कर भी कह नहीं पाने की सरकारी विवशता में फंसे अभयानंद इस बात से उत्साहित थे कि विभिन्न ज़िलों में हाल ही तैनात किए गए कुछ नए पुलिस अफ़सरों की सक्रियता से स्थिति बदलेगी.
उधर आम जनता इस अपराध-वृद्धि को लेकर बेहद तल्ख़ प्रतिक्रियाएं देने लगी है. यहाँ गाँधी मैदान में आम लोगों के बीच से मैंने इस विषय पर कुछ टिप्पणियां बटोरीं.
एक ने कहा, '' लगता है सांप की तरह बिल से फिर बलबला कर निकला है क्रिमनल सब. जो अपराधी ठेकेदारी में लग गया था, वो सब फिर से क्राईम करने में जुट गया है.''
दूसरे ने जोड़ा, '' पुलिस तो चोरबे सब के साथ है. घूसखोरी जब तक नहीं रुकेगी, क्राईम कंट्रोल नहीं होगा. '' तीसरे व्यक्ति ने टिप्पणी की, ''लालू राज हो या नीतीश राज, मर्डर किडनैपिंग सब होइए रहा है.''
पटना का हाल
मतलब साफ़ है कि पहले जंगल राज था, अब मंगल राज है वाली राजनीतिक चालाकी बहुत दिनों तक बेरोकटोक चल नहीं पाती है. इसलिए रोकटोक शुरू हो जाने से यहाँ सत्ता-सुख भोग रहे चेहरे तमतमा उठे हैं.राज्य में अन्य जगहों की कौन कहे, राजधानी पटना में भी आपराधिक घटनाओं का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ता जा रहा है. कार्रवाई के नाम पर सिर्फ पुलिस कर्मियों के तबादले पर तबादले हो रहे है.
औरतों के गले से चेन झपट लेने और राह चलते लोगों को कथित 'ब्लेड मैन' की ओर से लहूलुहान कर देने की बहुत सी घटनाएँ गत एक महीने में घट चुकी हैं.
वह 'ब्लेड मैन ' दरअसल है कौन, पुलिस अब तक पता नहीं लगा पाई है. इसी बीच पटना में एक बड़े पुलिस अधिकारी के भाई की दिन दहाड़े हत्या हो गई.
इस हत्याकांड से जुड़े एक अभियुक्त का भी अगले ही दिन यहाँ क़त्ल हो गया. पुलिस कप्तान हाथ-पांव ख़ूब मार रहे हैं, लेकिन स्थिति सुधर नहीं रही है.
अब सत्ता पक्ष की तरफ़ से पहले की तरह बार-बार ये बयान नहीं आता कि पटना में महिलाएं भी बिना डर-भय के देर रात तक घूमती हैं. सिर्फ यही नहीं, 'सुशासन' के कई और दावे दरकने लगे हैं.
अपहरण-उद्योग के ख़ात्मे के दावे
सबसे अधिक चोट नीतीश कुमार के उस बयान को पहुँची है, जिसके ज़रिये वो लालू-राबड़ी शासन काल वाले अपहरण-उद्योग का खात्मा कर देने जैसा दावा किया करते थे.ख़ुद पुलिस महकमा इस तथ्य को छिपा नहीं पा रहा है कि नीतीश राज के साढ़े छह वर्षों में अपहरण के बाद हत्या की घटनाओं में चौंकाने वाली वृद्धि हुई. ख़ासकर बच्चे और किशोर इसके अधिक शिकार हुए.
फ़र्क़ यही है कि लालू-राबड़ी शासन के समय फिरौती के लिए अपहरण की घटनाएँ ज़्यादा होती थीं, नीतीश कुमार के शासन में अपहरण करके क़त्ल कर देने का जघन्य अपराध अधिक हुआ और हो रहा है.
इस वर्ष जनवरी से हालत इतनी बिगड़ी है कि बीते चार महीने में हुए अपराध के मुकम्मिल आंकड़े देने में पुलिस महकमा जानबूझ कर आनाकानी या इनकार का रवैया अख्तियार किए हुए है.
बहुत मुश्किल से, वो भी अधूरी जानकारी दी गई कि इस वर्ष जनवरी में 220 और फ़रवरी में 208 हत्या के मामले पुलिस थानों में दर्ज हुए हैं. ये कुल 38 ज़िलों के नहीं, 30 ज़िलों के आंकड़े हैं.
अपराध के 'सरकारी सबूत'
अपराध के इन 'सरकारी सबूतों' को देखने से यही लगता है कि नीतीश राज में अपराधियों की गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए प्रहार कम और प्रचार अधिक हुआ है.स्पीडी ट्रायल के ज़रिये बड़ी तादाद में अपराधियों को सज़ा दिलाने जैसी सरकारी वाहवाही की भी हवा निकल चुकी है.
पुलिस की लचर तफ्तीश और या ठोस साक्ष्य के अभाव में अपराधी ऊंची अदालत में अपील के बाद छूट जाता है. भले ही स्पीडी ट्रायल वाली निचली अदालत से उसे सज़ा मिली हो
राज्य के मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक बड़े-बड़े अधिकारी या अन्य दबंग समुदाय की सेवा या सुरक्षा में पुलिस कर्मियों की बड़ी तादाद लगी हुई है. भले ही अपराध नियंत्रण के लिए पुलिस बल कम पड़ जाए.
मुख्यमंत्री की 'सेवा यात्रा ' या राज्य में उनके किसी भी दौरे का पुलिसिया तामझाम किसी राजसी सुरक्षा व्यवस्था से कम आलीशान नहीं होता.
आर्थिक अपराध बढ़ने का ज़िक्र यहाँ के डीजीपी कर रहे थे. उन्हें पता है कि आटे की बोरियों में छिपा कर रखे गए और पकडे भी गए करोड़ों रूपए के कोषपाल से जुड़ी सरकार भ्रष्टाचार की दुश्मन है या .......?
साफ़ बात ये है कि बिहार में पेशेवर अपराधी का ही नहीं, आपराधिक राजनीति का भी आतंक है. दोनों से त्रस्त इस राज्य में जन- सुरक्षा अगर ख़तरे में है, तो सरकार अभी से फ़िक्र क्यों करे? चुनाव तो बहुत दूर है!
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