पांच कारण: जिनसे दूसरे सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले राज्य में कमल खिला दिया
दिल्ली के बाद बिहार में हाथ जला चुकी भाजपा के लिए असम की जीत ने संजीवनी का काम किया है। बिहार में पूरा दमखम लगाने के बाद भी जीत से दूर रहने वाली भाजपा ने पूर्वोत्तर के इस सबसे महत्वपूर्ण राज्य में जीत हासिल करने के लिए अलग रणनीति पर काम किया। न यहां प्रधानमंत्री मोदी उसके स्टार प्रचारक थे न उनका चेहरा।
न इस चुनाव को भाजपा ने नाक का प्रश्न बनाकर वोटरों पर किसी तरह का दबाव बनाया न बिहार चुनाव की तरह बड़े बड़े वादे किए। भाजपा यहां पूरी तरह बदली रणनीति के साथ उतरी और खामोशी से जीत का सफर तय किया। आइए निगाह डालते हैं उन पांच बड़े कारणों पर जिनसे असम में भाजपा की राह आसान हुई।
सही समय पर सर्बानंद सोनेवाल को आगे करना
असम में भाजपा की जीत का सबसे ज्यादा श्रेय उसके मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार और केन्द्रीय मंत्री सर्बानंद सोनोवाल को दिया जा रहा है। सोनोवाल ही वो चेहरा हैं जिन्होंने पिछले पांच सालों में असम में भाजपा की किस्मत पलट कर रख दी। पांच साल पहले असम गण परिषद छोड़कर भाजपा में आए सोनोवाल को पार्टी ने पूरा महत्व दिया। उन्हें अध्यक्ष बनाया, लोकसभा चुनाव जीते तो केन्द्रीय मंत्री के पद से भी नवाजा। इसके बाद मुख्यंत्री पद का भी उम्मीदवार घोषित कर दिया।
असम में जातीय नायक की छवि रखने वाले सोनोवाल फिलहाल राज्य में सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं। लंबे समय तक छात्र राजनीति करने के कारण युवाओं में उनकी अच्छी पकड़ है तो बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे पर लंबा आंदोलन और सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ने वाले सोनोवाल आम आदमी के भी नायक बन गए।
लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा ने जितने भी विधानसभा चुनाव लड़े उनमें प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे को ही आगे रखा। इससे हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर में अच्छे परिणाम तो मिले लेकिन दिल्ली और बिहार के चुनावों में यह दांव भारी पड़ गया। दिल्ली और बिहार में हार की आंच मोदी तक तो पहुंची ही भाजपा पर स्थानीय नेताओं और मुद्दों को दरकिनार करने का आरोप भी लगा। इससे सबक लेते हुए भाजपा ने असम में स्थानीय नेतृत्व को ही आगे रखा। चाहे वह केन्द्रीय मंत्री सर्बानंद सोनोवाल हो या कांग्रेस छोड़कर आए हेमंत बिस्व सरमा।
राज्य के पूर्व शिक्षामंत्री रहे हेमंत सरमा को असम में काफी लोकप्रिय माना जाता है। सोनोवाल और सरमा की जोड़ी ने पहले निकाय चुनाव फिर विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत की राह तय कर दी। इसके अलावा अन्य स्थानीय नेताओं को भी भाजपा ने ज्यादा तरजीह दी। यही कारण रहा कि प्रधानमत्री मोदी ने असम में गिनती की चुनावी रैलियों को संबंधित किया। अन्य केन्द्रीय नेताओं को भी असम से दूर ही रखा गया।
बांग्लादेशी घुसपैठ को बनाया चुनावी मुद्दा
असम में बांग्लादेशी घुसपैठ शुरू से ही बड़ा मुद्दा रहा है। चुनाव में भी इसका असर हमेशा दिखता है। लाखों बांग्लादेशियों की घुसपैठ के कारण स्थानीय लोगों में अपनी पहचान खोने का डर भी सताता रहा है। पिछली कांग्रेस सरकार से लोगों की यही शिकायत थी कि वह बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों की रोकथाम के लिए जानबूझकर कोई कदम नहीं उठाती। इसके अलावा बांग्लादेश से आए मुस्लिमों को राज्य में प्रश्रय दिया जाता है। भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया।
लोकसभा चुनावों में भी भाजपा ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था जिसका उसे फायदा भी मिला। विधानसभा चुनावों में भाजपा ने एक बार फिर इसी पर दांव लगाया। भाजपा ने वादा किया कि चुनावों में जीतने पर बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों पर तो लगाम लगेगी ही जो लोग यहां बस चुके हैं उन्हें भी वापस भेजने का प्रयास शुरू किया जाएगा।
इसके अलावा शिक्षा और रोजगार जैसे जरूरी मुद्दे को भी भाजपा ने प्रमुखता से उठाया। सोनोवाल ने वादा किया कि भाजपा के जीतने पर केन्द्र सरकार के साथ मिलकर राज्य में रोजगार को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाएगा।
असम में सत्ता पाने के लिए भाजपा के सामने दो ही चुनाती थी पहली कांग्रेस और दूसरी मौलाना बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ। पिछले चुनावों में आठ सीठ लेकर भाजपा चौथे नंबर की पार्टी रही थी ऐसे में इस बार जीत दर्ज करने के लिए उसे ऐसे सहयोगियों की दरकार थी जो उसे आगे बढ़ने में सहारा दे सके।
ऐसे में भाजपा ने हाथ बढ़ाया असम में अपने पुराने साझेदार असम गण परिषद की ओर। राज्य में अपना वजूद तलाशते अगप को भी सहारा मिला और उसने तुरंत भाजपा का दामन थाम लिया। इसके बाद अलावा भाजपा ने बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट को भी अपने पाले में मिला लिया। इसके अलावा भी कई छोटे मोटे दलों को भाजपा ने अपने साथ कर लिया।
जबकि दूसरी तरह कांग्रेस एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन की संभावनाओं पर विचार करती रही गई। अगर कांग्रेस मौलाना अजमल के एआईयूडीएफ से गठबंधन कर लेती तो भाजपा की राहें मुश्किल हो सकती थी। क्योंकि अजमल को असम में मुस्लिमों का एकतरफा समर्थन हासिल है।
सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाना
भाजपा को असम में बड़ा फायदा सत्ता विरोधी लहर का भी मिला। 15 सालों से असम में तरुण गोगोई का शासन चल रहा था। ऐसे में उनके खिलाफ सत्ता विरोधी लहर भी बढ़ती रही। कई मुद्दों पर तो लोगों का कांग्रेस से जबरदस्त विरोध रहा। चार साल पहले असम में फायरिंग का लंबा दौर चला था जिससे स्थानीय लोगों में राज्य सरकार के प्रति जबरदस्त आक्रोश भर गया था। बांग्लादेशी घुसपैठ के मुद्दे पर भी स्थानीय जनता में सरकार के प्रति विरोध बढ़ता जा रहा था।
लोग घुसपैठ की बढ़ती समस्या के लिए प्रदेश सरकार को ही जिम्मेदार मान रहे थे। वहीं बेरोजगारी, अशिक्षा, बिजली की कमी और विकास न होना भी लोगों के लिए बड़ी समस्या थी, जिसने कांग्रेस के प्रति लोगों के दिमाग में गुस्सा भर रखा था। वृद्ध होते तरुण गोगोई के मुकाबले युवा सर्बानंद भी लोगों को ज्यादा बेहतर विकल्प लगे।
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