मुसलमानोँको नहीँ हैँ मांसाहार खाने की अनुमति -कुतर्कों का खण्ड़न, (जीभ का स्वार्थ)
पैगम्बर शाकाहारी थे: आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि इस्लाम धर्म के संस्थापक मो. पैगम्बर शाकाहारी थे, कहा जाता है कि जब पैगम्बर साहब मक्का-मदीना यात्रा पर गए थे, तो उन्होने वहां भी किसी जानवर की बलि नहीं दी थी। उनका मानना था कि किसी जीव के मृत शरीर से इंसान अपना खाली पेट कभी नहीं भर सकता है।
इस्लाम का आधिकारिक रंग हरा है: इस्लाम का आधिकारिक रंग हरा है जो शाकाहार का प्रतीक है, जो जानवरों को स्वतंत्र और फल व सब्जी खाने के लिए प्रेरित करता है। कुरान में भी वर्णन किया गया है कि जानवर, मानव की तरह ही होते हैं जिन्हे शोषित करना उचित नहीं है।
अरब ने मांसाहार को बढावा दिया: अरब ने ही मांसाहार को बढावा दिया है, क्योंकि वहां के लोगों के पास भोजन के साधन सीमित थे और ऐसा भी कहा जाता है कि कई लोगों ने इसी वजह से इस्लाम को स्वीकार भी कर लिया था। वरना इस्लाम धर्म शाकाहार को ही समर्थन देता था।
पहले पशुओं की हत्या उचित नहीं मानी जाती थी: इस्लाम में पहले स्वाद के लिए पशुओं की हत्या उचित नहीं मानी जाती थी, उन्हे किसी भी खुशी के अवसर पर हलाल नहीं किया जाता था, लेकिन एक बार ऐसा होने के बाद यह उनके जलसे का हिस्सा बन गया और वह इसे मीट के नाम पर खाने लगे। हालांकि उनका धर्म भी पशु हत्या के पक्ष में नहीं है।
विवशताकी अनुमति और उसका दुरपयोग *
रहे पशु,उन्हें भी उसी ने पैदा किया,जिसमें तुम्हारे लिए ऊष्मा प्राप्त करने का सामान भी है और हैं अन्य कितने ही लाभ। उनमें से कुछ को तुम खाते भी हो...
(कुरआन16:5)
*
और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है और उन्हें तुम खाते भी हो
(कुरआन 23:21)
यहां ईश्वर जानवरों को,ऊन दूध आदि के लिये पैदा करनें की तो जिम्मेदारी तो लेते है, पर खाने की क्रिया और कर्मकी पूरी जवाब देही बंदे पर ही छोड़ते है। आशय साफ है, अल्लाह कहते है, उन्हें ऊन दूध के लिए हमने पैदा किया, पर 'कुछ को तुम खाते हो' ।
यह तो अनुमति भी नहीं है, यह सीधे सीधे आपकी आदतों का निर्देश मात्र है। यह अल्लाह का अर्थपूर्ण बयान है।
निशानी बिलकुल ऐसा ही निर्देश शराब के लिये भी है,जब इस उपदेश के आशय में समझदार होकर, शराब को हेय माना गया है, तो उसी आशय के रहते, विवेक अपना कर, मांसाहार को हेय क्यों नहीं माना जाता?
देखिए यह दोनो तुलनात्मक आयतें………… *
और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते है। औऱ तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फ़ायदे है औरउन्हें तुम खाते भी हो
(कुरआन -23:21)
* और खजूरों और अंगूरों के फलों से से बनी शराब भी,जिससे तुम नशा भी करते हो और अच्छी रोज़ी भी। निश्चय ही इसमें बुद्धि से काम लेने वाले लोगों के लिए एक बड़ी निशानी है
(कुरआन -16:67)
शराब के लिए तो शिक्षा या निशानी निषेधात्मक ग्रहण की गई है पर मांसाहार के लिए निषेध नहीं ? क्यों नहीं?
“बुद्धि व विवेक से काम लेने वालों के लिए यह भी एक बड़ी निशानी है” सुनिश्चित है कि कुर्बानी या पशुबलि सच्चा त्याग नहीं है।
खुदा को तो इन्द्रिय इच्छाओं और मोह का त्याग प्रिय है।
अपनी ही सन्तति – सम्पत्ति की जानें नहीं। जानवर तुम्हें प्रिय होता तो उसकी जान न लेते। और तुम्हें अल्लाह प्रिय होता तो उसके प्रिय जानवर की जान भी न लेते। एक ही दिन लाखों निरीह प्राणियों की हिंसा? कहीं से भी ‘शान्ति-धर्म’के योग्य नहीं है।
शान्ति के संदेश (इस्लाम) को हिंसा का पर्याय बना देना उचित नहीं है। इस्लाम, हिंसा का प्रतीक नहीं हो सकता। यह मज़हब मांसाहार का द्योतक नहीं है। यदि इस्लाम शब्द के मायने ही शान्ति है तो वह शान्ति समस्त जगत के चर-अचर जीवों के लिए भी आरक्षित होनी चाहिए।
करूणावान अल्लाह कहते है-
न उनके मांस अल्लाह को पहुंचते हैं और न उनके रक्त। किंतु उसे तुम्हारा तक्वा (धर्मपरायणता) पहुंचता है।
(क़ुरआन -22: 37)
धरती में चलने-फिरनेवाला कोई भी प्राणी हो या अपने दो परो से उड़नवाला कोई पक्षी, ये सब तुम्हारी ही तरह के गिरोह है। हमने किताब में कोई भी चीज़ नहीं छोड़ी है। फिर वे अपने रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे
(क़ुरआन-6: 38)
इसमें अल्लाह नें स्पष्ट बयान किया है कि प्राणी (जानवर) और पक्षी मनुष्य के समान ही इसी गिरोह (समुदाय) के ही है। सभी रब की ओर इकट्ठे किए जाएँगे। अर्थात् निर्णायक दिन,सभी समान रूप से अल्लाह के प्रति जवाब देह होगें। अपने गुनाहों का फल भी भोगेंगे और मनुष्य की तरह न्याय मांगने के अधिकारी होंगे ।
हिंसाचार व मांसाहार इस्लाम की पहचान नहीं है। न ही इस्लाम का अस्तित्व, मात्र मांसाहार पर टिका है। इस्लाम का अस्तित्व उसके ईमान आदि सदाचारों से ही मुक्कमल है। हिंसा से तो कदापि नहीं। सच्चा त्याग अथवा कुरबानी, विषय वासनाओं,इच्छाओं और मोह के त्याग में है।
मनुष्य होने के कारण पैदा हुई मालिकियत के साथ इस भाव कि - ‘प्राणी के प्राण हमारे हाथ’ की अहंतुष्टि के त्याग में है। क्योंकि यह तृष्णाएं ही हमें सर्वाधिक प्रिय लगती है। इन्ही प्रिय इच्छाओं का त्याग,सच्चे अर्थों में कुरबानी है। हजरत इब्राहिम में लेश मात्र भी विषय-वासना आदि दुर्गुण नहीं थे। जब दुर्गुण ही नहीं थे तो त्यागते क्या? उन्हें पुत्रमोह था। मज़हब प्रचार के लिए उन्हें पुत्र से अपेक्षा थी इसलिए पुत्र ही उनका प्रियपात्र था। सो उन्होंने उसे ही त्यागने का निर्णय लिया। पर आज हमारे लिए प्रिय तो हमारे ही दुर्गुण बने हुए है। हिंसाचार, दिखावा, धोखेबाज़ी को ही हमने हमारा प्रिय शगल बना रखा है। यही दुर्गुण त्यागने योग्य है । बलि दुर्गुणों की दी जानी चाहिए। निर्दोष निरीह प्राणियों की नहीं।
यद्यपि अधिकांश मुस्लिम मांसाहारी होते हैं, परन्तु इस्लाम के सूफी संत मौलाना रूमी ने अपनी मसनवी में मुसलमानों को अहिंसा का उपदेश दिया है, वह कहते हैं,
"मी आजार मूरी कि दाना कुशस्त, कि जां दारद औ जां शीरीं खुशस्त"
अर्थात - तुम चींटी को भी नहीं मारो, जो दाना खाती है, क्योंकि उसमे भी जान है, और हरेक को अपनी जान प्यारी होती है.
1. हजरत रसूल अल्लाह सलल्लाह अलैह व वसल्लम ताकीदन फरमाते हैं कि जानदार को जीने व दुनिया में रहने का बराबर व पूरा हक है | ऐसा कोई आदमी नहीं है जो एक गौरैयां से छोटे कीड़े की भी जान लेताहै | खुदा उससे इसका हिसाब लेगा और वह इन्सान जो एक नन्हीं सी चिड़िया पर भी रहम करता है , उसकी जान बचाता है, अल्लाह कयामत के दिन उस पर रहम करेगा |
2. कोई भी चलने वाली चीज या जानदार, अल्लाह से बनायी है और सबको खाने को दिया है और यह जमीन उसने जानदारों (प्राणियों) के लिए बनायी है |
3. आदमी अपनी गिजा (खाने) की तरफ देखे कि कैसे हमने बारिश को जमीन पर भेजा, जिससे तरह-तरह के अनाज, अंगुर, फल-फूल, हरियाली व घास उगती है | ये सब खाने किसके लिए दिये गये है - तुम्हारे और तुम्हारे जानवरों के लिए |
4. क्या तुम नहीं देखते कि अल्लाह उन सबको प्यार करता है, जो जन्नत में है, जमीन पर है- चांद, सूरज, सितारे,पहाड़, पेड़, जानवर और बहुत से आदमियों को |
5. खुदा से डरो | कुदरत को बर्बाद मत करो | अल्लाह हरगुनाह को देखता है, इसलिए दोखज और सजा बनी है|
6 - जानवरों के लिए इस्लामी नजरिया, मौलाना, अहमद मसारी |
इस्लाम के सभी सूफी संतों ने नेक जीवन, दया, गरीबी व सादा भोजन व मांस न खाने पर बहुत जोर दिया है ।स्वयं भी वे सभी मांस से परहेज करते थे शेख इस्माइल, ख्वाजा मौइनुद्दीन चिश्ती, हजरत निजामुदीन औलिया, बू अली कलन्दर, शाहइनायत, मीर दाद, श्ट्टाह अज्दुल करीम आदि सूफी संतों का मार्ग नेक रहनी र आत्मसंयम, शाकाहारी भोजन व सब के प्रति प्रेम था,
उनका कथन हैं किताब याबीं दर बहिश्ते अरु जा, शक्कते बनुमाए व खल्के खुदा कि अगर तू -मुद्र; के लिये बहिश्त में निवास पाना चाहता है तो खुदा की खल्कत (सृष्टि) के साथ दया व हमदर्दी का बरताव कर । ईरान के दार्शनिक अल गजाली का कथन हैं कि रोटी के टुकड़ों के अलावा हम जो कुछ भी खाते है वह सिर्फ हमारी वासनाओं की पूर्ति के लिये होता है ।
प्रसिद्ध सन्त मीर दाद का कहना था कि जिस जीव का मांस काट कर खाते है; उसका बदला उन्हें अपने मांस से देना पड़ेगा । यदि किसी जीव की हड्डी तोड़ी है तो उसका भुगतान अपनी हड्डियों द्वारा करना होगा । दूसरे के बहाये गये खून की ?? प्रत्येक बूँद का हिसाब अपने खून से चुकाना पड़ेगा ।
क्योंकि यही अटल कानून है । महात्मा सरमद मांसाहार के विरोध में कहते हैं कि जीवन का नूर धातुओं में नींद ले रहा है, वनस्पति जगत में स्वप्न की अवस्था में है, पशुओं में वह जागृत हो चुका है और मनुष्य में वह पूरी तरह चेतन हो जाता है ।
कबीर साहिब मुसलमानों को संबोधित करके स्पष्ट करते हैं कि वे रोजे भी व्यर्थ और निष्फल है जिनको रखने वाला जिहवा के स्वाद के वश हो कर जीवों का घात करता है । इस प्रकार अल्लाह खुश नहीं होगा ।
रोजा धरै मनावै अलहु, सुआदति जीअ संघारै । आपा देखि अवर नहीं देखें काहे कउ झख मारै ।
लंदन मस्जिद के इमाम अल हाफिज बशीर अहमद मसेरी ने अपनी पुस्तक इस्लामिक कंसर्न अबाउट एनीमल में मजहब के हिसाब से पशुओं पर होने वाले अत्याचारों पर दु :ख प्रकट करते हुए पाक कुरान मजीद व हजरत मोहम्मद साहब के कथन का हवाला देते हुए किसी भी जीव जन्तु को कष्ट देने, उन्हें मानसिक व शारीरिक प्रतारणा देने, यहाँ तक कि पक्षियों को पिंजरों में कैद करने तक को भी गुनाह बताया है । उनका कथन हैं कि इस्लाम तो पेड़ों को काटने तक की भी इजाजत नहीं देता ।
इमाम साहब ने अपनी पुस्तक के पृष्ठ न. 18 पर हजरत मोहम्मद साहब का कथन इस प्रकर दोहराया है यदि कोई इन्सान किसी बेगुनाह चिड़िया तक को भी मारता है तो उसे खुदा को इसका जवाब देना होगा और जो किसी परिन्दे पर दया कर उसकी जान बखाता है तो अल्लाह उस पर कयामत के दिन रहम करेगा इमाम साहब स्वयं भी शाकाहारी है व सबको शाकाहार की सलाह देते है |
ऐसा ही एक त्योहार है बकरीद, जिसमें “कुर्बानी”(किसकी?) के नाम पर निरीह बकरों को काटा जाता है। मान लें कि समूचे विश्व में 2 अरब मुसलमान रहते हैं, जिनमें से लगभग सभी बकरीद अवश्य मनाते होंगे। यदि औसतन एक परिवार में 10 सदस्य हों, और एक परिवार मात्र आधा बकरा खाता हो तब भी तकरीबन 100 करोड़ बकरों की बलि मात्र एक दिन में दी जाती है (साल भर के अलग)।
(मैं तो समझता था कि कुर्बानी का मतलब होता है स्वयं कुछ कुर्बान करना। यानी हरेक मुस्लिम कम से कम अपनी एक उंगली का आधा-आधा हिस्सा ही कुर्बान करें तो कैसा रहे? बेचारे बकरों ने क्या बिगाड़ा है।)
अब सवाल उठता है कि यदि 2 लाख प्राणियों को मारना “बर्बरता” और असभ्यता है तो 5 करोड़ टर्की और 10 करोड़ बकरों को मारना क्या है? सिर्फ़ “परम्परा” और “कुर्बानी” की पवित्रता??? इससे ऐसा लगता है, कि परम्पराएं सिर्फ़ मुसलमानों और ईसाईयों के लिये ही होती हैं, हिन्दुओं के लिये नहीं।
हाल ही में कहीं एक बेहूदा सा तर्क पढ़ा था कि बकरीद के दौरान कटने वाले बकरों को गर्दन की एक विशेष नस काटकर मारा जाता है, और उसके कारण उस पशु की पहले दिमागी मौत हो जाती है फ़िर शारीरिक मौत होती है, तथा इस प्रक्रिया में उसे बहुत कम कष्ट होता है। शायद इसीलिये कश्मीर और फ़िलीस्तीन के मुस्लिम आतंकवादियों (सॉरी…स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों) का पसन्दीदा मानवाधिकारवादी तरीका, बंधक व्यक्ति का "गला रेतना" ही है, जिससे उसे कम तकलीफ़ हो। अब एक नया सवाल उठता है कि यदि वाकई इस इस्लामिक पद्धति (हलाल) से जानवरों को बहुत कम कष्ट होता है तो क्यों न कसाब और अफ़ज़ल का गला भी इसी पद्धति से काटा जाये ताकि उन्हें कम से कम तकलीफ़ हो (मानवाधिकारवादी ध्यान दें…)। जबकि शोध से ज्ञात हुआ है कि "झटका" पद्धति कम तकलीफ़देह होती है, बजाय इस्लामिक "हलाल" और यहूदी "काशरुट" पद्धति के।
एक सर्वे होना चाहिये जिसमें यह पता लगाया जाये कि "धार्मिक कर्मकाण्ड" के नाम पर भारत और बाकी विश्व में कितने मन्दिरों में अभी भी "बलि" की परम्परा वास्तविक रूप में मौजूद है (जहाँ वार्षिक या दैनिक पशु कटाई होती है) तथा भारत में कितने हिन्दू परिवारों में धर्म के नाम पर पशु कटने की परम्परा अभी भी जारी है (आहार के लिये काटे जाने वाले पशु-पक्षियों को अलग रखा जाये), फ़िर हिसाब लगाया जाये कि इस वजह से हिन्दू धर्म के नाम पर कितने पशु-पक्षी कटते हैं। ताकि न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार तथा "एनिमल राइट्स" के नाम पर चन्दाखोरी करने वालों के मुँह पर वे आँकड़े मारे जा सकें तथा अमेरिका तथा ईसाई जगत में कटने वाले टर्की तथा बकरीद के दौरान पूरे विश्व में कटने वाले बकरों की संख्या से उसकी तुलना की जा सके।
मैं व्यक्तिगत रूप से इस पशु बलि वाली बकवास धार्मिक परम्परा के खिलाफ़ हूं, लेकिन इस प्रकार का दोगलापन बर्दाश्त नहीं होता कि सिर्फ़ हिन्दुओं की परम्पराओं के खिलाफ़ माहौल बनाकर उन्हें असभ्य और बर्बर बताया जाये।
क्योंकि माता कभी बली नही मांगती
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
हे अर्जुन! नाना प्रकार की सब योनियों में जितनी मूर्तियाँ अर्थात शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं, प्रकृति तो उन सबकी गर्भधारण करने वाली माता है और मैं बीज को स्थापन करने वाला पिता हूँ
॥GEETA 14-4॥
सोचने वाली बात हैँ की क्या एक माता अपने ही पुत्र जो बोल नहीँ सकता उसकी बली कैसे मांगेगी कितनी भयावह मुर्खता हैँ ।
तो पहले तुम बताओ की अल्लाह को बकरे क्यों खिलाते हो...?
सारे विरोध प्रदर्शन हिन्दुओं की परम्पराओं के खिलाफ़ ही क्यों भाई, क्या इसलिये कि हिन्दू हमेशा से एक "आसान टारगेट" रहे हैं? एक बात तय है कि हम अंग्रेजी प्रेस को कितने भी आँकड़े दे लें, मार्क्स-मुल्ला-मैकाले-मिशनरी के हाथों बिका हुआ मीडिया हिन्दुओं के खिलाफ़ दुष्प्रचार से बाज नहीं आयेगा। जरा एक बार बकरीद के दिन मीडिया, मानवाधिकारवादी और एनिमल राईट्स के कार्यकर्ता कमेलों और कत्लगाहों में जाकर विरोध प्रदर्शन करके तो देखें… ऐसे जूते पड़ेंगे कि निकलते नहीं बनेगा उधर से… या फ़िर पश्चिम में "थैंक्स गिविंग डे" के दिन टर्कियों को मारने के खिलाफ़ कोई मुकदमा दायर करके देखें… खुद अमेरिका का राष्ट्रपति इनके पीछे हाथ-पाँव धोकर पड़ जायेगा… जबकि हिन्दुओं के साथ ऐसा कोई खतरा नहीं होता… कभी-कभार शिवसेना या राज ठाकरे, एकाध चैनल वाले का बाजा बजा देते हैं, बाकी तो जितनी मर्जी हो हिन्दुओं के खिलाफ़ लिखिये, खिलाफ़ बोलिये, खिलाफ़ छापिये, कुछ नहीं होने वाला।
लेख का सार -
1) सभी प्रकार की बलि अथवा पशु क्रूरता, अधर्म है, चाहे वह जिस भी धर्म में हो।
2) सिर्फ़ हिन्दुओं को "सिंगल-आउट" करके बदनाम करने की किसी भी कोशिश का विरोध होना चाहिये, विरोध करने वालों से कहा जाये कि पहले ज़रा दूसरे "धर्मों के कर्मों" को देख लो फ़िर हिन्दू धर्म की आलोचना करना…
लेख का सार -
1) सभी प्रकार की बलि अथवा पशु क्रूरता, अधर्म है, चाहे वह जिस भी धर्म में हो।
2) सिर्फ़ हिन्दुओं को "सिंगल-आउट" करके बदनाम करने की किसी भी कोशिश का विरोध होना चाहिये, विरोध करने वालों से कहा जाये कि पहले ज़रा दूसरे "धर्मों के कर्मों" को देख लो फ़िर हिन्दू धर्म की आलोचना करना…
बिल्कुल सही है, वैसे इन्सान का शरीर की बनतर मांसाहारी नहीं है, वो शाकाहारी भोजन के लिए है,किसी जीव का जीवन नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है हमें।
ReplyDelete