Sunday, February 14, 2016

JNU - जेएनयु का पूरा सच

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की छवि न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर के एक स्वतंत्र उच्च शिक्षण संस्थान की है बल्कि यहां हर तरह की अभिव्यक्ति और बहस के लिए जगह मिलती है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जरूरी भी है लेकिन संसद पर हुए आतंकी हमले के दोषी अफजल गुरु की बरसी मनाकर उसे शहीद बताना और भारत विरोधी नारे लगे जैसी हरकतों को देश हित में नहीं कहा जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की स्थापना उच्च शिक्षा में शोध कार्यों को बढ़ावा देने के लिए की गई थी, लेकिन वर्तमान समय में चल रहे विवादों के बीच ऐसा लगता है कि यह भारत विरोधियों का किला बन गया है।
इससे पहले भी जेएनयू छात्र कई बार देश विरोधी गतिविरोधी गतिविधियों में पैरवी करते नजर आए। चाहे फिदायीन इशरत जहाँ का मामला हो या संसद हमले के जिम्मेदार अफजल गुरु का मामला हो या मुंबई हमलों के लिए जिम्मेदार याकूब मेमन की फाँसी का सवाल हो। विपक्षी कई बार आरोप लगाते रहे हैं कि जब कभी चीन की फौज विवादित क्षेत्र से भारत में घुस आती है या पाकिस्तान की सेना सीमा पार से हमारे जवानों पर हमला करती है तो इनकी आवाज देश हित में क्यों नहीं उठता।

जेएनयू में कथित हिंदू विरोधी ही नहीं हिंदुस्तान विरोधी करतूतों की एक लम्बी फेहरिस्त है। कभी तिरंगे का, तो कभी देवी-देवताओं का अपमान।

इन आयोजनों को देखने के बाद यह साफ समझा जा सकता है कि इसका उद्देश्य या तो भारतीय संस्कृति और भारतीय संविधान को नीचा दिखाना है या फिर सस्ती लोकप्रियता हासिल करना है।
 
परिसर में इन आयोजनों को देखते हुए जेएनयू पर देशविरोधी गतिविधियों को लेकर उठने वाली चिंता वाजिब ही है। वर्ष 2000 में करगिल में युद्घ लड़ने वाले वीर सैनिकों को अपमानित कर यहां चल रहे मुशायरे में भारत-निंदा का समर्थन किया। 26 जनवरी, 2015 को इंटरनेशनल फूड फेस्टिवल के बहाने कश्मीर को अलग देश दिखाकर उसका स्टाल लगाया गया। जब नवरात्रि के दौरान पूरा देश देवी दुर्गा की आराधना कर रहा था, उसी वक्त जेएनयू में दुर्गा का अपमान करने वाले पर्चे, पोस्टर जारी कर न सिर्फ अशांति फैलाई गई बल्कि महिषासुर को महिमामंडित कर महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन किया गया।

इससे पहले 24 अक्टूरबर, 2011 को भी कावेरी छात्रावास में लार्ड मैकाले और महिषासुर: एक पुनर्पाठ विषय पर सेमिनार में दुर्गा के सम्बन्ध में अपमानजनक टिप्पणियों से मारपीट की भी नौबत आ गई थी।

यही नहीं जेएनयू छात्रों ने गौमांस फेस्टिवल मनाने की जिद पर अड़े संगठनों को दिल्ली उच्च न्यायालय रोक लगाई। सबसे हैरत की बात है कि जब 10 अप्रैल, 2010 को जब पूरा देश छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलिओं के गोलियों से शहीद हुए 76 जवानों के गम में गमगीन था, उसी समय जेएनयू में जश्न मनाया जा रहा थे। यही नहीं उसका विरोध करने पर माओवादियों-नक्सलवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले छात्रों ने उन पर हमला किया गया जिसमें में कई छात्र बुरी तरह घायल हो गए थे। छत्तीसगढ़, झारखण्ड सहित कुछ राज्यों के नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षा बलों द्वारा चलाए गए ऑपरेशन ग्रीन हंट नामक अभियान का विरोध जेएनयू छात्रों ने पर्चे और पब्लिक मीटिंग के जरिए की।

जब नवंबर 2005 में मनमोहन सिंह के भाषण में छात्रों ने नारेबाजी की और पर्चे फेंके तो भी इनके सहिष्णुता  पर सवाल उठाए गए थे। हंगामा इस कदर मचा था कि बीच बचाव के लिए पुलिस को आगे आना पड़ा। अगस्त 2008 में जब विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज विभाग में अमेरिका के अतिरिक्त सचिव रिचर्ड बाउचर को भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के संबंध में बोलना शुरू किया तो लाल झण्डा उठाकर छात्रों ने अमेरिका हाय-हाय, परमाणु समझौता रद्द करो जैसे नारे लगाते हुए एस कदर हंगामा मचाया कि अंत में कार्यक्रम को ही स्थगित करना पड़ा और रिचर्ड बाउचर भी अपनी बात नहीं रख पाए थे।
जब 5 मार्च, 2011 को आयोजित एक सेमिनार जिसमें अरुंधती राय ने भाग लिया था, उसमें न सिर्फ भारत सरकार और संविधान के विरोध में नारे लगाए गए थे बल्कि बांटे गए पर्चे में जूते के तले राष्ट्रीय चिन्ह को दिखाया गया। यही नहीं 30 मार्च, 2011 और 2015 में को भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट विश्वकप के मैच में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए गए और भारत का समर्थन कर रहे छात्रों पर हमले किये गए। 24 अगस्त, 2011 को अन्ना आंदोलन के समय तिरंगे को फाड़कर पैरों से रौंदा भी गया।
विविधता में एकता भारत की सदियों पुरानी पहचान रही है। भारत में विभिन्न प्रकार के मत-मतान्तरों के बीच जिस प्रकार का सौहार्दपूर्ण सामाजिक तानाबाना देखने को मिलता है, वह शायद पूरी दुनिया में ढूंढने से भी दिखाई नहीं पड़ता। 2014 से पहले तक जेएनयू के कैंपस में इजरायल के किसी व्यक्ति यहां तक कि राजदूत तक का घुसना भी प्रतिबंधित हुआ करता था।

जहां तक वामपंथी विचारधारा की बात है तो न सिर्फ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी बल्कि उत्तर कोरिया, वियतनाम, क्यूबा, चिली, वेनेजुएला या पूर्व सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टियों के किसी सदस्यों ने कभी देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त नहीं पाए गए।
कहा जाता है कि जेएनयू की स्थापना के समय की तत्कालीन इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने अपने अनुकूल बौद्धिक माहौल तैयार करने, अपने वैचारिकता के अनुकूल इतिहास बनाने के लिए जेएनयू की स्थापना की थी। सत्ता पोषित सुविधा सत्तर के दशक की शुरुआत में जब इंदिरा गांधी को विरासत बचाने के लिए वामपंथियों की मदद लेनी पड़ी, वही वो वक्त था जब कम्युनिस्टों ने भी शिक्षण संस्थाओं पर कब्जा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि इंदिरा गांधी के काल में लेफ्ट विचारधारा के लोगों को संस्थान में महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया गया। लेकिन धीरे धीरे जेएनयू छात्र संगठन की ताकत लगातार बढ़ती गई और इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार यहां के छात्रों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को परिसर के अंदर भी नहीं आने दिया था और लालकृष्ण आडवाणी को विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर ही रोक दिया था।
तब से लेकर आज तक जेएनयू में वैचारिक प्रतिनिधित्व के नाम पर एक ही विचारधारा का कब्जा रहा है? चाहे कश्मीर का मामला हो या उत्तर-पूर्व में नक्सल-माओवादी क्षेत्रों में सक्रिय हिंसा फैलाने वाले देशद्रोही और अलगाववादी ताकतों को समर्थन देने की, जेएनयू के छात्र संगठन हमेशा ही आगे नजर आते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर जी एन सार्इं बाबा हों या एसएआर गिलानी, खुफिया एजेंसियों ने कई बार इन्हे देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त पाया।

लेकिन यहां कई साकारात्मक बहसें भी देखा जा सकता है। इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही कहा जा सकता है कि यहां समाज में छुपा लिए जाने वाले मुद्दों पर सीमा से आगे बढ़कर बहस की जाती रही है। चाहे वो समलैंगिकता की स्वतंत्रता पर बहस हो या महिलाओं को स्वछंद रहने और काम करने की आजादी का मद्दा यहां हर मुद्दे पर गंभीर बहस का आयोजन देखा जा सकता है।
जब दिल्ली भर में कांग्रेस सरकार की नाक के नीचे सिखों का कत्ल हो रहा था तब जेएनयू ने ही सिखों को शरण दी और देशभर में गुंडागर्दी का पर्याय बन चुकी छात्र राजनीति का शानदार नमूना भी पेश किया। इसी वैचारिक खुलेपन का आड़ लेकर कई बार अतिवादियों ने यहां से अपना एजेंडा भी चलाया। एंटी इस्टैब्लिशमेंट काम करना जेएनयू की परिपाटी रही है। परमाणु ऊर्जा, किसान आत्महत्या, भूमि अधिग्रहण, देश का औद्योगिकरण आदि मुद्दों पर इनका विरोध खुद तक सीमित रहा।

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