''वो बाहर आया उसे धरती दिखी....और झट से सबसे पहले उसे छू के प्रणाम किया.....फिर पीछे मुड़ा और जेल के उपर लगे तिरंगे को सीना फुला कर सलाम मारा..........ल ेकिन मुझे हैरानी है,...
....ये धरती तो जेल के अंदर भी थी...और तिरंगा तो जेल के अंदर से भी दिख रहा था......तो फिर बाहर आकर ऐसे धरती को प्रणाम करने की क्या ज़रूरत थी......ऐसे तिरंगे को सल्यूट मारने की क्या ज़रूरत थी.......
.....चलो चले 1947 से पहले के दिनो में.......जब हम अँग्रेज़ों की गुलामी में ज़िंदगी गुज़ारा करते थे......
ना हम हिंदू थे ,,ना मुस्लिम थे ना सिख थे...ना ईसाई थे....हम सिर्फ़ गुलाम थे,.,,,अंग्रेज़ ो के गुलाम......हम कैदी थे.....
.....अपनी ही धरती की जेल में....जहा से अपनी ज़मीन को चूमते तो थे...लेकिन डर डर कर............
.........एक दिन संग्राम हुवा...आज़ादी की लड़ाई का.......हम लड़े और आज़ाद हो गये.....हम लोग गुलामी से छूट गये...
....हमे अपनी ज़मीन अपनी धरती माँ वापस मिल गयी........
लेकिन जब हमे आज़ाद भारत मिल गया तो हम सबके सुर ही बदल गये......हिंदू अलग,,मुस्लिम अलग..सिख अलग....सब अलग अलग.....फिर आज़ाद भारत के दो टुकड़े भी हो गये.....जिसे जिन्ना पाकिस्तान लेके चला गया.........
........बाकी बचे हिंदुस्तानियों पे आज़ादी का रंग चढ़ने लगा....और चढ़े भी क्यों ना....ना जाने कितना खून दे के तो आज़ादी मिली........आज़ ाद भारत की आबो हवा के हम आदि हो गये.....धीरे धीरे हम ज़िंदगी को आज़ादी के पहिए से फिर आगे की ओर ले जाने लगे.......हम तरक्की करने लगे....हम विश्व से कदम से कदम मिला कर चलने लगे......
......लेकिन इन सब के बीच हम एक चीज़ भूलते जा रहे थे........अपनी माँ अपनी धरती मां के गौरव को.......
......हम जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे....मक्कारी.. .बेईमानी....... गद्दारी......ला लच फरेब. भ्रष्टाचार..ये सब भी अपने साथ तेज़ी से आगे ले जा रहे थे......हम क़ैद होते जा रहे थे....एक ऐसी जेल में जहाँ से हमे अपनी धरती माँ नही सिर्फ़ अपना स्वार्थ दिखता है.......मेरे भाइयों मैं तो सिर्फ़ इतना कहना चाहता हूँ की एक बार बस एक बार उस पिछली ज़िंदगी को कुछ दिन के लिए जी के देखों जहाँ हमारी औकात....कोंडों और अँग्रेज़ों की बेतों की मार भर है.....जहाँ चुल्लू भर पानी के लिए भी पूरा पूरा दिन अँग्रेज़ों ने धूप में खून जलवाया है.....बस कुछ दिन अपने लिए ऐसी जेल बना कर और उसमे रह कर देखों,......... ...
...फिर जब तुम पश्चाताप की आग में जल कर उस जेल से बाहर आओगे ना.....और जैसे ही तुम्हे अपनी आज़ाद धरती माँ दिखेगी ना...मेरे भाई तुम इस तरह सजदा करोगे उसे....इस तरह चूमोगे उसे...जैसे किसी बच्चे को उसकी खोई हुई माँ मिल गयी हो.......बस इसके आगे लिखूंगा तो मेरी स्याही मेरे आँसू... समुंदर बन जाएँगे........
.............को ई ग़लती हो तो इस छोटे से लेखक दोस्त को माफी दे दीजिएगा....... ............... .....''मुझे है फख्र की सजदे में जब मैं चूमता उसको
............... ......नमाज़े भी मेरी कहती तेरी मिट्टी महकती है"
............... .........एक हिंद नेक हिंद जय हिंद........... .....
....ये धरती तो जेल के अंदर भी थी...और तिरंगा तो जेल के अंदर से भी दिख रहा था......तो फिर बाहर आकर ऐसे धरती को प्रणाम करने की क्या ज़रूरत थी......ऐसे तिरंगे को सल्यूट मारने की क्या ज़रूरत थी.......
.....चलो चले 1947 से पहले के दिनो में.......जब हम अँग्रेज़ों की गुलामी में ज़िंदगी गुज़ारा करते थे......
ना हम हिंदू थे ,,ना मुस्लिम थे ना सिख थे...ना ईसाई थे....हम सिर्फ़ गुलाम थे,.,,,अंग्रेज़
.....अपनी ही धरती की जेल में....जहा से अपनी ज़मीन को चूमते तो थे...लेकिन डर डर कर............
.........एक दिन संग्राम हुवा...आज़ादी की लड़ाई का.......हम लड़े और आज़ाद हो गये.....हम लोग गुलामी से छूट गये...
....हमे अपनी ज़मीन अपनी धरती माँ वापस मिल गयी........
लेकिन जब हमे आज़ाद भारत मिल गया तो हम सबके सुर ही बदल गये......हिंदू अलग,,मुस्लिम अलग..सिख अलग....सब अलग अलग.....फिर आज़ाद भारत के दो टुकड़े भी हो गये.....जिसे जिन्ना पाकिस्तान लेके चला गया.........
........बाकी बचे हिंदुस्तानियों पे आज़ादी का रंग चढ़ने लगा....और चढ़े भी क्यों ना....ना जाने कितना खून दे के तो आज़ादी मिली........आज़
......लेकिन इन सब के बीच हम एक चीज़ भूलते जा रहे थे........अपनी माँ अपनी धरती मां के गौरव को.......
......हम जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे....मक्कारी..
...फिर जब तुम पश्चाताप की आग में जल कर उस जेल से बाहर आओगे ना.....और जैसे ही तुम्हे अपनी आज़ाद धरती माँ दिखेगी ना...मेरे भाई तुम इस तरह सजदा करोगे उसे....इस तरह चूमोगे उसे...जैसे किसी बच्चे को उसकी खोई हुई माँ मिल गयी हो.......बस इसके आगे लिखूंगा तो मेरी स्याही मेरे आँसू... समुंदर बन जाएँगे........
.............को
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