"भगवा आतंक" - एक बड़ी राजनैतिक साज़िश, पूर्व डिप्टी NSA डॉ प्रधान का खुलासा
पहले से जानते थे कि समझौता एक्सप्रेस में धमाके होने वाले हैं
चिदंबरम के गृहमंत्री बनने के बाद बदल गई जांच की दिशा
खुफिया विभाग के अधिकारी भी थे आश्चर्यचकित
एनआईए को अपने इस्तेमाल के लिए बनाया और खास लोगों को जगह दी
दिग्विजय सिंह और चिदंबरम के बीच राहुल से नजदीकियों की होड़ थी
ओसाम बिन लादेन के पाकिस्तान में होने की जानकारी हमारे पास थी
अमेरिका और भारत की एजेंसियों ने पाकिस्तान के बारे में इनपुट साझा किए
बड़बोलेपन की वजह से प्रज्ञा, असीमानंद जैसे लोगों को शिकार बनाया गया
असली मकसद संघ के आला नेताओं और मोदी तक पहुंचना था
ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी के पूर्व प्रमुख और पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डॉ. एस. डी. प्रधान से एक्सक्लूसिव बातचीत- (भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए लगातार शोध करने वाले और कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रह चुके डॉ. एस. डी. प्रधान ने भगवा आतंक के झूठ का पर्दाफाश करते हुए एक्सक्लूसिव बातचीत में कई अहम खुलासे किए हैं…)
जांच बाद की बात है, खुफिया विभाग धमाकों के पहले ही जानता था कि कौन धमाके करने वाला है..
समझौता और दूसरे धमाकों के पहले ही हमें ये खबर थी की ये धमाके होने वाले है. हमारी इंटेलीजेंस एजेंसी के लिए ये नाकामी नहीं बल्कि कामयाबी थी क्यूंकि हमने पहले ही बताया था कि धमाके हो सकते हैं. समझौता एक्सप्रेस को लेकर पर भी जानकारियां पहले ही दे दी गई थीं. इसके औपचारिक पेपर आईबी और जेआईसी के पास आज भी मौजूद है. इसके बाद अमेरिका ने भी अपनी खुफिया एजेंसियों के हवाले से ये जानकारी दी थी.
आरिफ कसमानी का नाम पहले ही शेयर किया गया था और उसके बारे में भारतीय एजेंसियों के पास भी जानकारी थी. ताज्जूब की बात ये है कि इन पूरी जानकारियों को नजर अंदाज कर जांच की दिशा ही बदल दी गई. एनआईए के हाथ में केस आया और सबकुछ बदल दिया गया.
समझौता और इशरत जहां दोनों ही मामलों को साफ साफ बदला गया..
समझौता ब्लास्ट की जांच में तो बिलकुल साफ है कि जांच को साफ साफ बदला गया और इसी तरह इशरत जहां के मामले में भी सबकुछ बदल दिया गया. अगस्त 2009 में जो फाइलें आई थी वो सितंबर-अक्टूबर में पूरी तरह बदल दी गईं. पहले ही जांच की फाइलें आ गई थीं लेकिन बाद में उन्हें किसी खास मकसद से बदल दिया गया.
2004 में जब ये सब हो रहा था तब में ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी के साथ एडीशनल सेक्रेटरी के तौर पर जुड़ा था और मैंने सारी रिपोर्ट्स देखी थीं. यही नहीं हम लोग अहमदाबाद भी गए थे क्यूंकि इन लोगों के बारे में पहले से ही जानकारियां थी. ये सब अचानक नहीं हुआ था बहुत दिनों से इंटेलीजेंस एजेंसीज नजर बनाए हुए थीं. इशरत जहां का नाम लश्कर की वेब साइट पर भी था.
2009 के चुनाव के बाद से ही 2014 की तैयारियां शुरू हो गई थीं..
2009 के इलेक्शन में यूपीए की जीत हुई लेकिन उन्हें ये पता था कि आने वाले चुनाव में मोदी और संघ बड़ी चुनौती बनकर उभरेंगे. यही वजह है कि इस जीत के कुछ समय बाद ही भगवा आतंक शब्द का इस्तेमाल किया गया. ये शब्द भी किसी और ने नहीं गृह मंत्री चिदंबरम ने संसद में कहे, इसकी उस वक्त कड़ी आलोचना भी हुई थी.
इसके बाद से लगातार जांच बदलती चली गई और इशरत जहां और समझौता ब्लास्ट दोनों की जांच में एक नया मोड़ दे दिया गया. इस मामले पर अपने दूसरे साथियों से भी मेरी बातचीत होती रही. वो भी आश्चर्य चकित थे कि आखिर ये हो क्या रहा है? इसकी जांच चलती रही लेकिन इसमें कुछ नहीं मिल रहा था. खुफिया विभाग के साथियों ने भी तब बताया था कि इस मामले में इंडियन्स के खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं.
समझौता में 100 फीसदी पाकिस्तानी हाथ और मालेगांव में 99 फीसदी
मालेगांव में धमाके के दौरान कुछ इंडियन्स भी शामिल हो सकते हैं. ये स्लीपर माड्यूल्स होते हैं और इन्हें अलग अलग कामों के लिए एक्टिवेट किया जाता है. इनका काम विस्फोटकों को इधर से उधर ले जाने भर तक सीमित है. इन्हें खुद भी पता नहीं होता है कि पूरा प्लान क्या है इसीलिए मैं मालेगांव में 99 फीसदी पाकिस्तान समर्थित आतंकियों का हाथ होने की बात कह रहा हूं.
हो सकता है कुछ इंडियन मॉड्यूल्स का इस्तेमाल आतंकियों ने इन धमाकों में किया हो लेकिन समझौता ब्लास्ट में सौ फीसदी पाकिस्तान का हाथ था इसके पुख्ता सबूत हमारे पास हैं. हमारी अपनी रिपोर्ट्स थी और साथ ही साथ अमेरिकी खुफिया एजेंसियां भी इस बात को पुख्ता कर रही थीं.
बयानों को पिरोकर मामला बनाने की राजनैतिक साजिश
अभिनव भारत जैसी संस्था उग्र विचारधारा की रही है. धमकी देना और बड़बोलापन दिखाकर बम का बदला बम से लेने की बात करना उनका तरीका रहा है. ऐसी बहुत सी संस्थाएं और लोग हिंदुस्तान में हैं लेकिन धमकियां देना और आतंकी हमला करने में बड़ा फर्क है. ये लोग बोलते जरूर है लेकिन इनके पास ऐसा करने की कोई सलाहियत ही नहीं है.
इनकी बातों के बारे में तो जानकारियां मिली लेकिन इनकी किसी प्लानिंग के बारे में जांच एजेंसियों को कभी कोई सबूत नहीं मिले. इनके सीधे सीधे धमाकों से जुड़े होने का भी कोई सबूत नहीं मिला. इकबालिया बयानों के आधार एक दूसरे के खिलाफ बुलवाकर इस पूरी कहानी को खड़ा कर दिया गया. जहां तक समझौता का सवाल है वहां तो किसी का भी किसी तरह का कोई इन्वॉल्वमेंट हो ही नहीं सकता. इस जांच की दिशा को राजनीति से प्रेरित होकर बदल दिया गया.
इंद्रेश कुमार और मोहन भागवत तक पहुंचने की कोशिश की जा रही थी
सिमी के आतंकियों का एक बार फिर से नार्को टेस्ट हाल ही में हुआ और उसमें भी ये साफ हो गया है कि समझौता ब्लास्ट को कैसे अंजाम दिया गया था. उनका ये कबूलनामा धमाकों के बाद ही सामने आ गया था लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए जांच को एक अलग दिशा देने का काम किया गया.
बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो 2009 में इन्होंने सिर्फ संघ को फंसाने के लिए समझौता और इशरत जहां मामले सामने रखे थे. इन्हें डर था मोदी से और यही वजह है कि पहली बार खुद गृह मंत्री ने भगवा आतंक शब्द का इस्तेमाल किया था जिसे कड़ी निंदा के बाद उन्हें वापस लेना पड़ा था.
मैं चिदंबरम को जानता हूं वो बहुत शार्प हैं
मैंने कई मीटिंग्स के दौरान चिंदबरम को देखा है और उनके काम को नजदीक से समझने का मौका भी मिला है. मैंने उन्हें 2004 से जानता हूं और एक बात उनके बारे में साफ तौर पर कह सकता हूं कि वो बहुत शार्प और इंटेलीजेंट हैं. लेकिन उन्होंने अपनी इंटेलीजेंस गलत जगह लगाई थी. वो वकील भी हैं इसीलिए सभी मामलों को खुद ही कानूनी तौर पर बनाने में जुटे हुए थे.
उन्हें शिवराज पाटिल को हटाकर लाया गया था. पाटिल सीधे आदमी थे वो चाहे जो हो जाता इस तरह की साजिश में शामिल नहीं होते. वो बैलेंस में विश्वास करने वाले इंसान थे. लेकिन वकील चिंदबरम तो कानूनी तरीके से इस मामले को भगवा रंग देने में जुटे थे. एनआईए में भी इन्हीं के द्वारा चयनित लोगों को रखा गया था.
एनआईए बनाने के पीछे भी चिदंबरम का खास मकसद था
एनआईए के एक एक अधिकारी का चयन चिदंबरम के इशारे पर हुआ था. उनके इशारों पर काम करने वाले खास लोगों को इसमें जगह दी गई थी. चिदंबरम की इस बात को लेकर भी आलोचना हुई थी कि वो सीनियर्स के बजाय कई जूनियर्स को तवज्जो दे रहे हैं.
यहां भी उनकी मंशा सवालों के घेरे में थीं क्यूंकि वो शायद ऐसे लोग चाहते थे जो उनके इशारे और एजेंडे पर काम करें. ऐसे भी कई लोग रहे जो पहले एनआईए में सीनियर पद पर आए और फिर बाद में उन्हें कई दूसरे महत्वपूर्ण पद दे दिए गए. ये उन्हें फायदा पहुंचाने का इशारा भी करता है.
अमेरिका भारत को क्यूं देता था जानकारियां
अमेरिका पाकिस्तान की चालाकी से वाकिफ था लेकिन अफगानिस्तान में अपनी लड़ाई के लिए पाकिस्तान उसकी मजबूरी था. लेकिन अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की नजर आईएसआई की हर गतिविधि पर थी. अमेरिका का खुफिया नेटवर्क पाकिस्तान में बहुत मजबूत है. पाकिस्तान में आईएसआई की साजिशों के बारे में वो समय समय पर भारत को जानकारियां देता रहा है.
समझौता ब्लास्ट की जानकारी भी ऐसी ही एक जानकारी थी साथ ही हमारी खुफिया एजेंसियों के पास भी इसके इनपुट्स पहले से ही थे. 2009 में 7 अमेरीकी एजेंट मारे गए थे और जनवरी 2010 के एक सीक्रेट केबल से ये साफ है कि इसके लिए आईएसआई ने आर्थिक मदद की थी. अमेरिका ये सब जानता था लेकिन उसकी मजबूरी थी कि पाकिस्तान को साथ लेकर चलना है लेकिन वो भारत को सारी जानकारियां देता रहता था.
कसमानी के बारे सारी जानकारियां मौजूद थीं. खासतौर पर उसकी फंडिंग के बारें में अहम जानकारियां थी. क्यूंकि अमेरिका का पाकिस्तान में डीप पेनेट्रेशन है और वो साथ मिलकर अफगानिस्तान में काम करते हैं इसीलिए भी अमेरिका के पास ज्यादा भीतर तक की जानकारियां होती हैं. वो हमें हर मीटिंग और आतंकियों के मंसूबों के बारे में बताते रहते थे.
लादेन के पाकिस्तान में होने की जानकारी भारत ने अमेरिका को दी
जानकारियां हम भी अमेरिका को मुहैया कराते रहे हैं. मुझे याद है 2006-2007 के आस पास दो अहम मीटिंग्स पाकिस्तान में हुई थी. इनमें जवाहिरी और ओसाम का सिपहसालार मुल्ला उमर शामिल थे. ये लोग मीटिंग खत्म होने के बाद रावलपिंडी जाते थे और वहां से गायब हो जाते थे.
हमें तभी शक हो गया था कि ओसामा बिन लादेन रावलपिंडी के आस पास ही है. ये जानकारी हमने अमेरिका के साथ साझा की थी और बहुत मुमकिन है इसी को आगे डेवलप कर अमेरिका ने ओसामा का सफाया कर दिया.
इसी तरह उन्होंने कसमानी के रोल के बारे में हमें कई बार बताया था. दरअसल अमेरिकी खुफिया एजेंसी के एजेंट पाकिस्तानी भी हैं जो उन्हें खबर देते रहते हैं. हम लोगों को उनके मुकाबले जरा कम जानकारियां होती थी. समझौता एक्सप्रेस के बारे में हमें भी जानकारियां थी लेकिन अमेरिकी एजेंसी ने और पुख्ता तौर पर जानकारियां दी थी कि इसमें भी आरिफ कसमानी का अहम रोल है.
दिग्विजय सिंह और चिदंबरम के बीच की खींचतान
दिग्विजय सिंह हेमंत करकरे के लगातार संपर्क में थे. यहां तक की उनकी मौत के बाद उन्होंने इसे हिंदू आतंकियों का काम तक कह दिया था. इसके बाद करकरे की पत्नि ने उनसे मिलने से भी इंकार कर दिया था. चिदंबरम की भी लाइन यही थी लेकिन सरकार में भी खींचतान थी.
दरअसल दिग्विजय राहुल के नजदीक थे और चिदंबरम जानना चाहते थे कि वो राहुल को क्या जानकारियां देते हैं. इसी लिए ये खबरें भी आई कि दिग्विजय सिंह का फोन भी टैप करवाया जा रहा था. चिदंबरम को अपनी कुर्सी का खतरा भी सता रहा था.
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चिदंबरम के गृहमंत्री बनने के बाद बदल गई जांच की दिशा
खुफिया विभाग के अधिकारी भी थे आश्चर्यचकित
एनआईए को अपने इस्तेमाल के लिए बनाया और खास लोगों को जगह दी
दिग्विजय सिंह और चिदंबरम के बीच राहुल से नजदीकियों की होड़ थी
ओसाम बिन लादेन के पाकिस्तान में होने की जानकारी हमारे पास थी
अमेरिका और भारत की एजेंसियों ने पाकिस्तान के बारे में इनपुट साझा किए
बड़बोलेपन की वजह से प्रज्ञा, असीमानंद जैसे लोगों को शिकार बनाया गया
असली मकसद संघ के आला नेताओं और मोदी तक पहुंचना था
ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी के पूर्व प्रमुख और पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डॉ. एस. डी. प्रधान से एक्सक्लूसिव बातचीत- (भारतीय खुफिया एजेंसियों के लिए लगातार शोध करने वाले और कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रह चुके डॉ. एस. डी. प्रधान ने भगवा आतंक के झूठ का पर्दाफाश करते हुए एक्सक्लूसिव बातचीत में कई अहम खुलासे किए हैं…)
जांच बाद की बात है, खुफिया विभाग धमाकों के पहले ही जानता था कि कौन धमाके करने वाला है..
समझौता और दूसरे धमाकों के पहले ही हमें ये खबर थी की ये धमाके होने वाले है. हमारी इंटेलीजेंस एजेंसी के लिए ये नाकामी नहीं बल्कि कामयाबी थी क्यूंकि हमने पहले ही बताया था कि धमाके हो सकते हैं. समझौता एक्सप्रेस को लेकर पर भी जानकारियां पहले ही दे दी गई थीं. इसके औपचारिक पेपर आईबी और जेआईसी के पास आज भी मौजूद है. इसके बाद अमेरिका ने भी अपनी खुफिया एजेंसियों के हवाले से ये जानकारी दी थी.
आरिफ कसमानी का नाम पहले ही शेयर किया गया था और उसके बारे में भारतीय एजेंसियों के पास भी जानकारी थी. ताज्जूब की बात ये है कि इन पूरी जानकारियों को नजर अंदाज कर जांच की दिशा ही बदल दी गई. एनआईए के हाथ में केस आया और सबकुछ बदल दिया गया.
समझौता और इशरत जहां दोनों ही मामलों को साफ साफ बदला गया..
समझौता ब्लास्ट की जांच में तो बिलकुल साफ है कि जांच को साफ साफ बदला गया और इसी तरह इशरत जहां के मामले में भी सबकुछ बदल दिया गया. अगस्त 2009 में जो फाइलें आई थी वो सितंबर-अक्टूबर में पूरी तरह बदल दी गईं. पहले ही जांच की फाइलें आ गई थीं लेकिन बाद में उन्हें किसी खास मकसद से बदल दिया गया.
2004 में जब ये सब हो रहा था तब में ज्वाइंट इंटेलीजेंस कमेटी के साथ एडीशनल सेक्रेटरी के तौर पर जुड़ा था और मैंने सारी रिपोर्ट्स देखी थीं. यही नहीं हम लोग अहमदाबाद भी गए थे क्यूंकि इन लोगों के बारे में पहले से ही जानकारियां थी. ये सब अचानक नहीं हुआ था बहुत दिनों से इंटेलीजेंस एजेंसीज नजर बनाए हुए थीं. इशरत जहां का नाम लश्कर की वेब साइट पर भी था.
2009 के चुनाव के बाद से ही 2014 की तैयारियां शुरू हो गई थीं..
2009 के इलेक्शन में यूपीए की जीत हुई लेकिन उन्हें ये पता था कि आने वाले चुनाव में मोदी और संघ बड़ी चुनौती बनकर उभरेंगे. यही वजह है कि इस जीत के कुछ समय बाद ही भगवा आतंक शब्द का इस्तेमाल किया गया. ये शब्द भी किसी और ने नहीं गृह मंत्री चिदंबरम ने संसद में कहे, इसकी उस वक्त कड़ी आलोचना भी हुई थी.
इसके बाद से लगातार जांच बदलती चली गई और इशरत जहां और समझौता ब्लास्ट दोनों की जांच में एक नया मोड़ दे दिया गया. इस मामले पर अपने दूसरे साथियों से भी मेरी बातचीत होती रही. वो भी आश्चर्य चकित थे कि आखिर ये हो क्या रहा है? इसकी जांच चलती रही लेकिन इसमें कुछ नहीं मिल रहा था. खुफिया विभाग के साथियों ने भी तब बताया था कि इस मामले में इंडियन्स के खिलाफ कोई सबूत नहीं हैं.
समझौता में 100 फीसदी पाकिस्तानी हाथ और मालेगांव में 99 फीसदी
मालेगांव में धमाके के दौरान कुछ इंडियन्स भी शामिल हो सकते हैं. ये स्लीपर माड्यूल्स होते हैं और इन्हें अलग अलग कामों के लिए एक्टिवेट किया जाता है. इनका काम विस्फोटकों को इधर से उधर ले जाने भर तक सीमित है. इन्हें खुद भी पता नहीं होता है कि पूरा प्लान क्या है इसीलिए मैं मालेगांव में 99 फीसदी पाकिस्तान समर्थित आतंकियों का हाथ होने की बात कह रहा हूं.
हो सकता है कुछ इंडियन मॉड्यूल्स का इस्तेमाल आतंकियों ने इन धमाकों में किया हो लेकिन समझौता ब्लास्ट में सौ फीसदी पाकिस्तान का हाथ था इसके पुख्ता सबूत हमारे पास हैं. हमारी अपनी रिपोर्ट्स थी और साथ ही साथ अमेरिकी खुफिया एजेंसियां भी इस बात को पुख्ता कर रही थीं.
बयानों को पिरोकर मामला बनाने की राजनैतिक साजिश
अभिनव भारत जैसी संस्था उग्र विचारधारा की रही है. धमकी देना और बड़बोलापन दिखाकर बम का बदला बम से लेने की बात करना उनका तरीका रहा है. ऐसी बहुत सी संस्थाएं और लोग हिंदुस्तान में हैं लेकिन धमकियां देना और आतंकी हमला करने में बड़ा फर्क है. ये लोग बोलते जरूर है लेकिन इनके पास ऐसा करने की कोई सलाहियत ही नहीं है.
इनकी बातों के बारे में तो जानकारियां मिली लेकिन इनकी किसी प्लानिंग के बारे में जांच एजेंसियों को कभी कोई सबूत नहीं मिले. इनके सीधे सीधे धमाकों से जुड़े होने का भी कोई सबूत नहीं मिला. इकबालिया बयानों के आधार एक दूसरे के खिलाफ बुलवाकर इस पूरी कहानी को खड़ा कर दिया गया. जहां तक समझौता का सवाल है वहां तो किसी का भी किसी तरह का कोई इन्वॉल्वमेंट हो ही नहीं सकता. इस जांच की दिशा को राजनीति से प्रेरित होकर बदल दिया गया.
इंद्रेश कुमार और मोहन भागवत तक पहुंचने की कोशिश की जा रही थी
सिमी के आतंकियों का एक बार फिर से नार्को टेस्ट हाल ही में हुआ और उसमें भी ये साफ हो गया है कि समझौता ब्लास्ट को कैसे अंजाम दिया गया था. उनका ये कबूलनामा धमाकों के बाद ही सामने आ गया था लेकिन राजनीतिक फायदे के लिए जांच को एक अलग दिशा देने का काम किया गया.
बड़े परिप्रेक्ष्य में देखें तो 2009 में इन्होंने सिर्फ संघ को फंसाने के लिए समझौता और इशरत जहां मामले सामने रखे थे. इन्हें डर था मोदी से और यही वजह है कि पहली बार खुद गृह मंत्री ने भगवा आतंक शब्द का इस्तेमाल किया था जिसे कड़ी निंदा के बाद उन्हें वापस लेना पड़ा था.
मैं चिदंबरम को जानता हूं वो बहुत शार्प हैं
मैंने कई मीटिंग्स के दौरान चिंदबरम को देखा है और उनके काम को नजदीक से समझने का मौका भी मिला है. मैंने उन्हें 2004 से जानता हूं और एक बात उनके बारे में साफ तौर पर कह सकता हूं कि वो बहुत शार्प और इंटेलीजेंट हैं. लेकिन उन्होंने अपनी इंटेलीजेंस गलत जगह लगाई थी. वो वकील भी हैं इसीलिए सभी मामलों को खुद ही कानूनी तौर पर बनाने में जुटे हुए थे.
उन्हें शिवराज पाटिल को हटाकर लाया गया था. पाटिल सीधे आदमी थे वो चाहे जो हो जाता इस तरह की साजिश में शामिल नहीं होते. वो बैलेंस में विश्वास करने वाले इंसान थे. लेकिन वकील चिंदबरम तो कानूनी तरीके से इस मामले को भगवा रंग देने में जुटे थे. एनआईए में भी इन्हीं के द्वारा चयनित लोगों को रखा गया था.
एनआईए बनाने के पीछे भी चिदंबरम का खास मकसद था
एनआईए के एक एक अधिकारी का चयन चिदंबरम के इशारे पर हुआ था. उनके इशारों पर काम करने वाले खास लोगों को इसमें जगह दी गई थी. चिदंबरम की इस बात को लेकर भी आलोचना हुई थी कि वो सीनियर्स के बजाय कई जूनियर्स को तवज्जो दे रहे हैं.
यहां भी उनकी मंशा सवालों के घेरे में थीं क्यूंकि वो शायद ऐसे लोग चाहते थे जो उनके इशारे और एजेंडे पर काम करें. ऐसे भी कई लोग रहे जो पहले एनआईए में सीनियर पद पर आए और फिर बाद में उन्हें कई दूसरे महत्वपूर्ण पद दे दिए गए. ये उन्हें फायदा पहुंचाने का इशारा भी करता है.
अमेरिका भारत को क्यूं देता था जानकारियां
अमेरिका पाकिस्तान की चालाकी से वाकिफ था लेकिन अफगानिस्तान में अपनी लड़ाई के लिए पाकिस्तान उसकी मजबूरी था. लेकिन अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की नजर आईएसआई की हर गतिविधि पर थी. अमेरिका का खुफिया नेटवर्क पाकिस्तान में बहुत मजबूत है. पाकिस्तान में आईएसआई की साजिशों के बारे में वो समय समय पर भारत को जानकारियां देता रहा है.
समझौता ब्लास्ट की जानकारी भी ऐसी ही एक जानकारी थी साथ ही हमारी खुफिया एजेंसियों के पास भी इसके इनपुट्स पहले से ही थे. 2009 में 7 अमेरीकी एजेंट मारे गए थे और जनवरी 2010 के एक सीक्रेट केबल से ये साफ है कि इसके लिए आईएसआई ने आर्थिक मदद की थी. अमेरिका ये सब जानता था लेकिन उसकी मजबूरी थी कि पाकिस्तान को साथ लेकर चलना है लेकिन वो भारत को सारी जानकारियां देता रहता था.
कसमानी के बारे सारी जानकारियां मौजूद थीं. खासतौर पर उसकी फंडिंग के बारें में अहम जानकारियां थी. क्यूंकि अमेरिका का पाकिस्तान में डीप पेनेट्रेशन है और वो साथ मिलकर अफगानिस्तान में काम करते हैं इसीलिए भी अमेरिका के पास ज्यादा भीतर तक की जानकारियां होती हैं. वो हमें हर मीटिंग और आतंकियों के मंसूबों के बारे में बताते रहते थे.
लादेन के पाकिस्तान में होने की जानकारी भारत ने अमेरिका को दी
जानकारियां हम भी अमेरिका को मुहैया कराते रहे हैं. मुझे याद है 2006-2007 के आस पास दो अहम मीटिंग्स पाकिस्तान में हुई थी. इनमें जवाहिरी और ओसाम का सिपहसालार मुल्ला उमर शामिल थे. ये लोग मीटिंग खत्म होने के बाद रावलपिंडी जाते थे और वहां से गायब हो जाते थे.
हमें तभी शक हो गया था कि ओसामा बिन लादेन रावलपिंडी के आस पास ही है. ये जानकारी हमने अमेरिका के साथ साझा की थी और बहुत मुमकिन है इसी को आगे डेवलप कर अमेरिका ने ओसामा का सफाया कर दिया.
इसी तरह उन्होंने कसमानी के रोल के बारे में हमें कई बार बताया था. दरअसल अमेरिकी खुफिया एजेंसी के एजेंट पाकिस्तानी भी हैं जो उन्हें खबर देते रहते हैं. हम लोगों को उनके मुकाबले जरा कम जानकारियां होती थी. समझौता एक्सप्रेस के बारे में हमें भी जानकारियां थी लेकिन अमेरिकी एजेंसी ने और पुख्ता तौर पर जानकारियां दी थी कि इसमें भी आरिफ कसमानी का अहम रोल है.
दिग्विजय सिंह और चिदंबरम के बीच की खींचतान
दिग्विजय सिंह हेमंत करकरे के लगातार संपर्क में थे. यहां तक की उनकी मौत के बाद उन्होंने इसे हिंदू आतंकियों का काम तक कह दिया था. इसके बाद करकरे की पत्नि ने उनसे मिलने से भी इंकार कर दिया था. चिदंबरम की भी लाइन यही थी लेकिन सरकार में भी खींचतान थी.
दरअसल दिग्विजय राहुल के नजदीक थे और चिदंबरम जानना चाहते थे कि वो राहुल को क्या जानकारियां देते हैं. इसी लिए ये खबरें भी आई कि दिग्विजय सिंह का फोन भी टैप करवाया जा रहा था. चिदंबरम को अपनी कुर्सी का खतरा भी सता रहा था.
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