मैं अक्सर कहता हूँ की मुझे कहानियां गढ़नी नहीं आती, बस इस छोटी उम्र में दुनिया में जितने किस्से देखें हैं उनको ही लोगों के साथ शेयर करता रहता हूँ....उसके हिसाब से ही चीजों को समझने का नजरिया विकसित हुआ है....आज आपको एक ऐसे इंसान का किस्सा सुनाता हूँ जिसको अपने जीवन मे हर कदम पर पत्थर ही मिले...पर उसने कभी किसी से शिकायत नहीं की...किस्मत से भी नहीं......लड़खड़ा
मेरे मोहल्ले में कुछ दूर पर एक ब्राम्हण परिवार रहता था...तीन लोगों का छोटा सा सुखी परिवार...मियाँ बीवी और उनका इकलौता लड़का...अभिषेक अवस्थी...मैं उस समय कुछ पांच साल का रहा होउंगा और वो शायद बारह या तेरह साल का......एक दिन अचानक से उसकी मम्मी यूं ही बीमार पड़ गयीं....नॉर्मल दवा दारु से ठीक नहीं हुई तो हॉस्पिटल में एडमिट कराना पड़ा... तीन दिन एडमिट रहीं फिर तबियत मे कुछ सुधार हुआ तो हॉस्पिटल से रेफर हो घर आ गयीं....धीरे धीरे तबियत सुधरने लगीं....अभिषेक रात में अपनी मम्मी के पास ही सोता था....पता नहीं कैसे और क्या हुआ ......एक दिन यूं ही रात में बिल्कुल शान्ति से बिना किसी आहट के उसकी मम्मी के प्राण छूट गये... किसी को भनक भी ना लगी...वो रात भर उस लाश से चिपट कर सोया रहा....सुबह जब पता चला तो घर में कोहराम मच गया...पंडित जी तो सुध बुध खोकर बिल्कुल पत्थर हो चले...अभिषेक को शायद लग रहा था की उसके रोने से और जिद्द करने से उसकी मम्मी वापस लौट आएँगी...इसी उम्मीद में वो रोता रहा चीखता रहा पर अबकी उसकी मम्मी ने जिद्द पकड़ ली थी...अब बच्चे की जिद्द पर उनका दिल पसीजता भी तो कैसे जब वो धड़कना ही बंद हो चुका था....
महीने भर पूरे मोहल्ले में मातम छाया रहा....कभी किसी के घर से खाना बनकर चला जाता तो कभी किसी के घर से....लेकिन ऐसे कब तक चलता....लोगों ने पंडित जी को सलाह दी की ऐसे जिंदगी नहीं कटने वाली... अभी आपकी उम्र बहुत नहीं हुई है फिर आपका बच्चा भी छोटा ही है....साल भर बाद मोहल्ले वालों की जोर जबरदस्ती और सहयोग से पंडित जी की फिर से शादी करा दी गयी....समय के साथ साथ जख्म भरने लगे...कुछ ही समय में पंडित जी का दिल नयी पंडिताइन में ऐसा रमा की उन्हें पुरानी यादें कड़वी सी लगने लगीं....लेकिन अभिषेक के साथ कुछ और ही बात थी...जैसा की अधिकांश मामलों में होता है....कुछ समय तो सब ठीक ठाक रहता है लेकिन जिंदगी ने धीरे धीरे अपना असली रंग दिखाना शुरु कर दिया।
समय आगे बढ़ा और पंडित जी के चार बच्चे और हुये...एक लड़का और तीन लड़कियां....
पंडिताइन उम्र में पंडित जी से थोड़ी ज्यादा छोटी थीं...अभिषेक भी अब किशोर हो चुका था...अब उसे पंडित जी की किराने की दूकान पर भी बैठना पड़ता....हिसाब किताब को छोड़कर दुकान के सारे काम अभिषेक के मत्थे.... कई बार गल्ले से पैसे निकालने के आरोप में पंडित जी ने उसे बहुत मारा...रात को 10 बजे दूकान का शटर गिराकर आता तो अपने कपड़े धुलता...पंडिताइ
फिर भी उसने कभी किसी से कोई शिकायत नहीं की....
एक दिन हल्ला मचा की अभिषेक पंडिताइन को नहाते हुए चुपके चुपके देखता है....मुहल्ले भर में हड़कंप मच गया...पंडित जी ऐसा रौद्र हुये की जो मिल रहा था उससे ही बिना देखे बस पीटे जा रहे थे...मुहल्ले भर के मान में ना आयें.... पंडिताइन दूर बैठे बुलुक्का चुआ रहीं थीं....अभिषेक सिर्फ एक बार पंडित जी के चंगुल से छूटा और अंधी दौड़ लगा दी....लोग वापस आने का इन्तजार करते रहे...पर उसका कुछ पता ठिकाना नहीं चला....कुछ दिनों बाद पंडितजी का भी पुत्रमोह जागृत हो उठा...एफ आई आर वगैरह हुई...खोजने में पूरा बूता लगा दिया....पर लड़का फिर नहीं ही मिला...
समय धीरे धीरे फिर कटने लगा...सब लोगो अभिषेक को मरा मान भूल गये.... इधर जिंदगी ने धीरे धीरे फिर करवट बदलना शुरू की....हद्द से ज्यादा लाड प्यार में पंडित जी का छोटा लड़का बिगड़ गया....दारूबाजी
एक दिन किसी से खबर मिली की अभिषेक ना जाने कहाँ से फिर लौट आया...हम लोगों ने सुना तो आश्चर्य की सीमा ना रही...ज्यादा कुछ तो पता नही चल पाया...पिछला मुहल्ला भी दूर ही था तो जाने की जहमत कौन उठाये.....
एक दिन मई की भीसण दुपहरिया में सन्डे के दिन मेरे घर पर दरवाजे पर दस्तक हुयी....मम्मी ने दरवाजा खोला मैं वहीं पास में लेटा था....झाँककर देखा तो एक गोरा चिट्टा आदमी खड़ा था....हम तो नहीं पहचान पाये लेकिन मम्मी की आँखों से आंसू बहने लगे....शायद महिलाओं की यही खासियत है की वो सालों बाद भी चेहरे नहीं भूलतीं....
वो काफी देर तक भावुकता में कुछ कह ही नहीं पाया फिर थोड़ा नॉर्मल होने के बाद उसने अपना किस्सा सुनाया.....
वो घर से भागने के बाद किसी तरह कानपुर सेंट्रल पहुंचा था, फिर वहां कोई ट्रेन पकड़कर गोरखपुर पहुँच गया.....कई दिनों तक भूखा प्यासा वही स्टेशन पर भटकता रहा....फिर किसी गिरोह के चंगुल में फंसकर पटरियों से खाली बोतलें बीनने का काम करने लगा....एक दिन ट्रेन में किसी मुसाफिर से टकरा गया....उसने पूछ्ताछ की तो इसने बना बनाकर झूठी कहानी सुना दी की उसके माँ बाप मर चुके हैं दुनिया में उसका कोई नहीं....वो आदमी उसे कलकत्ते ले गया...वहां अपनी इलेक्ट्रिक शॉप पर काम सिखाना शुरु किया....दिन भर उसी दूकान में काम करता और सीखता फिर रात में वहीं कोने में चुप मारकर सो जाता.....धीरे धीरे वो इस काम में मास्टर हो गया....मार्केट में उसकी डिमांड बढ़ गयी....काफी रूपये पैसे जमा कर लिये..... फिर एक दिन उसे घर की याद आने लगी....परिवार की याद....इतने सालों तक बिल्कुल अकेला रहा....नाम के अलावा कोई पहचान नहीं.....कोई रिश्तेदार नहीं....जब नही रहा गया तो झोली झँटी उठाकर कानपुर की ट्रेन पकड़ ली....
यहां आया तो पता चला पंडित जी नही रहे....घर की दीन हीन हालत देखकर रोने लगा.....पुरानी सारी बातें भूलकर उसने फिर कमर कसी....... किराने की दुकान हटाकर उसे इलेक्ट्रिक सामानों को रिपेयरिंग वाली शॉप बना दी...पंखा ,प्रेस, मोटर वगैरह की....
धीरे धीरे काम चलने लगा....स्थिति सुधरने लगी....छोटे भाई को भी डांट मारकर अपने साथ लगा लिया....अभी कुछ समय पहले ही अपनी एक बहन की शादी की है....उसकी खुद की उम्र भो ज्यादा हो रही है....अब घरवालों के दबाव में उसकी भी शादी का नंबर लग चुका है.....
प्रत्युषा बनर्जी की मौत की खबर पढ़कर मेरा भी मन खट्टा हुआ था....लेकिन सुसाइड को किसी भी तरह से जस्टिफाई करना अभिषेक जैसे बन्दों के संघर्ष का अपमान सा लगता है.....जिंदगी मौके देती नहीं बल्कि उसके जबड़े में हाँथ डालकर मौके छीने जाते हैं....हाँथ घायल हो सकता है, खून भी निकलेगा और दर्द भी होगा....लेकिन लड़ाई तब तक खत्म नहीं होती जब तक जीत ना हांसिल हो जाये.... हारता वही है जो हार मान लेता है....लड़ते रहने वालों की कभी हार नहीं होती...
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