साल 2012 की बात है। JNU में SFI के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार वी.लेनिन कुमार ने राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस की तरफ से प्रणब मुखर्जी की दावेदारी को सीपीएम का समर्थन देने पर विरोध जताया था। अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकार सीताराम येचुरी और प्रकाश करात की सीपीएम ने बिना देर किए लेनिन कुमार और चार साथियों को न केवल एसएफआई से बाहर कर दिया बल्कि जेएनयू की एसएफआई यूनिट ही बर्खास्त कर दी। लेनिन कुमार ने एसएफआई-जेएनयू बनाई और चुनाव लड़ा। लेनिन कुमार चुनाव जीत गया। और असल एसएफआई का उम्मीदवार 10वें नंबर पर रहा और उसे 4309 में से सिर्फ 107 वोट मिले। तो ये थी असल एसएफआई की कैंपस में हैसियत और कद लेनिन का बड़ा था। उस वक्त बकौल इंडियनएक्सप्रेस लेनिन ने कहा था-
"fundamental problem with the CPM-SFI" is that the combine now functions like a "dictatorship" with "no room for debate" and represents all that is "unprincipled and undemocratic".
यानी तानाशाही-वो भी एक छोटी सी यूनिवर्सिटी में। लेकिन सवाल लेनिन की जीत का नहीं, सवाल यह कि प्रणव मुखर्जी की दावेदारी का विरोध भर करने पर सीपीएम ने अपने छात्र नेताओं को पार्टी से बाहर कर दिया और वो अभिव्यक्ति की आजादी की बात कर रहे हैं। और सवाल यह भी है कि लेनिन समेत तमाम एसएफआई छात्र नेता प्रणव मुखर्जी को उस वक्त 'दलाल' और कांग्रेस को दलालों, भ्रष्टाचारियों और दलितों-गरीबों को लूटने वालों की पार्टी मानते थे (लेनिन का भाषण सुन लीजिए) लेकिन अब वही कांग्रेस वोट बैंक के लिए लेफ्ट की गोद मे बैठने को तैयार है और लेफ्ट को कांग्रेस में कोई बुराई नहीं दिख रही।
जो कन्हैया अब लेफ्ट पार्टियों का प्रचार करने को तैयार है, वो जेएनयू चुनाव के वक्त लेफ्ट के बाकी धड़ों से भी आजादी चाह रहा था। यकीं न तो उस वक्त के उसके भाषण सुन लीजिए(क्विंट पर बाइट है)। फिर एक सवाल ये भी जेहन में है कि क्या जेएनयू का लेफ्ट एबीवीपी से घबराया हुआु हैं क्योंकि बीते छात्र संघ चुनाव में 14 साल बाद एबीवीपी का एक कैंडिडेट सेंट्रल पैनल में पहुंचा। उपाध्यक्ष पद पर भी एबीवीपी कैंडिडेट दूसरे नंबर पर रहा। महासचिव पर भी एबीवीपी कैंडिडेट दूसरे नंबर पर रहा। यानी लेफ्ट के जितने धड़े जेएनयू में सक्रिय हैं-छात्रों का भरोसा उनसे उठ रहा है।
खैर, लेफ्ट को नया नेता मिल गया है। कॉमरेड कन्हैया अब लेफ्ट को तारेगा तो अच्छा है। लेकिन, अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल बुलंद करे तो फिर लेनिन को बाहर करने का सवाल भी उठेगा ही और उठना भी चाहिए। जो पार्टी अपने छात्र नेताओं को असहमति का हक नहीं देती-वो कैसे अभिव्यक्ति की आजादी की बात करती है। लेनिन का भाषण भी सुन लीजिए।
"fundamental problem with the CPM-SFI" is that the combine now functions like a "dictatorship" with "no room for debate" and represents all that is "unprincipled and undemocratic".
यानी तानाशाही-वो भी एक छोटी सी यूनिवर्सिटी में। लेकिन सवाल लेनिन की जीत का नहीं, सवाल यह कि प्रणव मुखर्जी की दावेदारी का विरोध भर करने पर सीपीएम ने अपने छात्र नेताओं को पार्टी से बाहर कर दिया और वो अभिव्यक्ति की आजादी की बात कर रहे हैं। और सवाल यह भी है कि लेनिन समेत तमाम एसएफआई छात्र नेता प्रणव मुखर्जी को उस वक्त 'दलाल' और कांग्रेस को दलालों, भ्रष्टाचारियों और दलितों-गरीबों को लूटने वालों की पार्टी मानते थे (लेनिन का भाषण सुन लीजिए) लेकिन अब वही कांग्रेस वोट बैंक के लिए लेफ्ट की गोद मे बैठने को तैयार है और लेफ्ट को कांग्रेस में कोई बुराई नहीं दिख रही।
जो कन्हैया अब लेफ्ट पार्टियों का प्रचार करने को तैयार है, वो जेएनयू चुनाव के वक्त लेफ्ट के बाकी धड़ों से भी आजादी चाह रहा था। यकीं न तो उस वक्त के उसके भाषण सुन लीजिए(क्विंट पर बाइट है)। फिर एक सवाल ये भी जेहन में है कि क्या जेएनयू का लेफ्ट एबीवीपी से घबराया हुआु हैं क्योंकि बीते छात्र संघ चुनाव में 14 साल बाद एबीवीपी का एक कैंडिडेट सेंट्रल पैनल में पहुंचा। उपाध्यक्ष पद पर भी एबीवीपी कैंडिडेट दूसरे नंबर पर रहा। महासचिव पर भी एबीवीपी कैंडिडेट दूसरे नंबर पर रहा। यानी लेफ्ट के जितने धड़े जेएनयू में सक्रिय हैं-छात्रों का भरोसा उनसे उठ रहा है।
खैर, लेफ्ट को नया नेता मिल गया है। कॉमरेड कन्हैया अब लेफ्ट को तारेगा तो अच्छा है। लेकिन, अभिव्यक्ति की आजादी का सवाल बुलंद करे तो फिर लेनिन को बाहर करने का सवाल भी उठेगा ही और उठना भी चाहिए। जो पार्टी अपने छात्र नेताओं को असहमति का हक नहीं देती-वो कैसे अभिव्यक्ति की आजादी की बात करती है। लेनिन का भाषण भी सुन लीजिए।
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